दि™ आखिर कैसे समझाऊँ तुझे?A Poem by Vagisha VartikaWhat cannot be achieved, can be overcome by other big achievement.कितनी बार अधूरी चीज़ों से होते हैं हम अधीर, ™-ता है मानो कुछ नहीं रहा अपने अधीन| जीवन में थी वो बात सबसे महत्वपूर्ण, क्या हुआ अ-र नहीं हुआ वो पूर्ण? कबतक समझाऊ दि™ को, कबतक सिखाऊँ तुझे कुछ बेहतर हो-ा| थक -ई है वो आवाज़ जिसने की थी एक नयी आ-ाज़ , कैसे उठाऊ उसे, दि™ आखिर कैसे समझाऊ तुझे? तब ही दिखी कही एक किरण, ™-ा सूर्य हो-ा, देखा तो था वो एक टिमटिमाता जु-नू, बताने आया था शायद, देखो अँधेरे में भी मैं चमक रहा हूँ| चारों "र है मेरे अंधेरा, तो क्या? ™ो खुद ही रोशनी बन -या मैं, "र बन रहा हूँ मिसा™-ऐ दि™ तुम्हारे ™िए| फिर दि™ ने सोचा च™ो फिर ज-म-ाते है, रोशनी फिर फै™ाते हैं , कबतक यूं बैठे रहें-े, पह™ा -या तो दूसरा कदम फिर उठाते है | च™ते है फिर से, क्यूंकि जो रुक -ए, तो ज़िन्दा कहा? जा-ूँ "र च™ते रहूँ, एक जु-नू ज़रा मैं भी बन ™ू| © 2018 Vagisha Vartika |
StatsAuthorVagisha VartikaRanchi, Jharkhand, IndiaAboutA lot of words, a lot of feelings, but only few can express them. When a person writes, it impacts everyone. Keep updating the world with the mighty pen! more.. |