Rashmirathi

Rashmirathi

A Poem by ianalex27
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A poem of 7 parts valled sapt sarg written by Ramdhari singh dinkar 1951. Rashmi rathi means chariot of sunrays meaning Karn. A warrior from Mahabharat. Hindu mythology.

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प्रथम सर्�-

'जय हो' ज�- में ज�™े जहाँ भी, नमन पुनीत अन�™ को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, ब�™ को।
किसी वृन्त पर खि�™े विपिन में, पर, नमस्य है फू�™,
सुधी खोजते नहीं, �-ुणों का आदि, शक्ति का मू�™।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आ�-,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्या�-।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं �-ोत्र बत�™ा के,
पाते हैं ज�- में प्रशस्ति अपना करतब दिख�™ा के।
हीन मू�™ की �"र देख ज�- �-�™त कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में �™ीक।

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका प�™ना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में प�™ा, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निक�™ा कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-�-ोत्र का नहीं, शी�™ का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने �-ुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

अ�™�- न�-र के को�™ाह�™ से, अ�™�- पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्यो�-ी �™�-ा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खि�™ा कर्ण, ज�- की आँखों से दूर।

नहीं फू�™ते कुसुम मात्र राजा�"ं के उपवन में,
अमित बार खि�™ते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हा�™,
�-ुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती �™ा�™।

ज�™द-पट�™ में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
यु�- की अवहे�™ना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जा�-,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पह�™ी आ�-।

रं�--भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, 'ता�™ियों से क्या रहा �-र्व में फू�™?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धू�™।'

'तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिख�™ा सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नयी क�™ाएँ भी सिख�™ा सकता हूँ।
आँख खो�™ कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फू�™े सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।'

इस प्रकार कह �™�-ा दिखाने कर्ण क�™ाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह �-यी, �-यी रह आँख टँ�-ी जन-जन की।
मन्त्र-मु�-्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
�-ूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।

फिरा कर्ण, त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सक�™ नर-नारी,
राजवंश के नेता�"ं पर पड़ी विपद् अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बो�™ते हुए, 'वीर! शाबाश !'

द्वन्द्व-युद्ध के �™िए पार्थ को फिर उसने �™�™कारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का �-ुरु ने किया इशारा।
कृपाचार्य ने कहा- 'सुनो हे वीर युवक अनजान'
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।

'क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं �™ड़े�-ा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़े�-ा?
अर्जुन से �™ड़ना हो तो मत �-हो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बता�" कि तुम जाति हो कौन?'

'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डो�™ा,
कुपित सूर्य की �"र देख वह वीर क्रोध से बो�™ा
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केव�™ पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर का�™े-के-का�™े,
शरमाते हैं नहीं ज�-त् में जाति पूछनेवा�™े।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, �™ेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, �-्�™ानि से रह जा�" मत मौन।

'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम �™िये च�™ते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के ब�™ से सुख में प�™ते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छ�™ से माँ�- �™िया करते हो अं�-ूठे का दान।

रश्मिरथी को हमारे यूट्यूब चैन�™ पर सुने





'पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजब�™ से'
रवि-समान दीपित �™�™ाट से �"र कवच-कुण्ड�™ से,
पढ़ो उसे जो झ�™क रहा है मुझमें तेज-प़काश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आ�-े वह आवे,
क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिख�™ावे।
अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,
अपनी महाजाति की दूँ�-ा मैं तुमको पहचान।'

कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपुत्र से �™ड़े बिना होता हो अ�-र अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिये पह�™े कोई राज।'

कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,
सह न सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आ�-े आया।
बो�™ा-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,
उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।

'मू�™ जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर �"र �-ोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोब�™ से भूत�™ पर शूर,
'जाति-जाति' का शोर मचाते केव�™ कायर क्रूर।

'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निक�™ भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भ�™े ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,
म�™िन, म�-र, इसके आ�-े हैं सारे राजकुमार।

'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमो�™ रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खु�™ी घोषणा सुने सक�™ संसार।

'अं�-देश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
�-ूँजा रं�-भूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।

कर्ण चकित रह �-या सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय �™�-ा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्‌भ्रान्त?


'किया कौन-सा त्या�- अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू �-्रहण करे यदि मुझको ।'
कर्ण �"र �-�™ �-या,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।

'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पह�™े-पह�™ मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
उऋण भ�™ा होऊँ�-ा उससे चुका कौन-सा दाम?
कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'

घेर खड़े हो �-ये कर्ण को मुदित, मु�-्ध पुरवासी,
होते ही हैं �™ो�- शूरता-पूजन के अभि�™ाषी।
चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को, पर �™ेती पहचान।

�™�-े �™ो�- पूजने कर्ण को कुंकुम �"र कम�™ से,
रं�--भूमि भर �-यी चतुर्दिक् पु�™काकु�™ क�™क�™ से।
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
जनता विक�™ पुकार उठी, 'जय महाराज अं�-ेश।

'महाराज अं�-ेश!' तीर-सा �™�-ा हृदय में जा के,
विफ�™ क्रोध में कहा भीम ने �"र नहीं कुछ पा के।
'हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,
सूत-पुत्र किस तरह च�™ा पाये�-ा कोई राज?'

दुर्योधन ने कहा-'भीम ! झूठे बकबक करते हो,
कह�™ाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?
नर का �-ुण उज्जव�™ चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।

'सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बो�™ो,
जन्मे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खो�™ो?
अपना अव�-ुण नहीं देखता, अजब ज�-त् का हा�™,
निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भा�™।

कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बो�™े 'छिः! यह क्या है?
तुम �™ो�-ों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
च�™ो, च�™ें घर को, देखो; होने को आयी शाम,
थके हुए हो�-े तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।'

रं�--भूमि से च�™े सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-�-ुण आपस में �-ाते।
सबसे अ�™�- च�™े अर्जुन को �™िए हुए �-ुरु द्रोण,
कहते हुए -'पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?

'जन्मे नहीं ज�-त् में अर्जुन! कोई प्रतिब�™ तेरा,
टँ�-ा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एक�™व्य से �™िया अँ�-ूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।

'म�-र, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हि�™ता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का �™क्षण मि�™ता है।
बढ़ता �-या अ�-र निष्कंटक यह उद्‌भट भट बां�™,
अर्जुन! तेरे �™िये कभी यह हो सकता है का�™!

'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँ�-ा,
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँ�-ा?
शिष्य बनाऊँ�-ा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'

रं�--भूमि से �™िये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
च�™े झूमते हुए खुशी में �-ाते, मौज मनाते।
कञ्चन के यु�- शै�™-शिखर-सम सु�-ठित, सुघर सुवर्ण,
�-�™बाँही दे च�™े परस्पर दुर्योधन �"' कर्ण।

बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीत�™ अस्ताच�™ पर से,
चूम रहे थे अं�- पुत्र का स्नि�-्ध-सुकोम�™ कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
विरम �-या क्षण एक क्षितिज पर �-ति को छोड़ विमान।

�"र हाय, रनिवास च�™ा वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे च�™ी एक विक�™ा मसोसती मन को।
उजड़ �-ये हों स्वप्न कि जैसे हार �-यी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

द्वितीय सर्�-


शीत�™, विर�™ एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समत�™, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरिया�™ी के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।

आस-पास कुछ कटे हुए पी�™े धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, �-ि�™हरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रि�™, अ�™सित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का �™ेहन,
कुछ खाते शाक�™्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे �-ोधन।

हवन-अ�-्नि बुझ चुकी, �-न्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
धूम-धूम चर्चित �™�-ते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अ�™सित कजरारे �™ोचन जैसे।

बैठे हुए सुखद आतप में मृ�- रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसा�™ की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इं�-ुद-से चिकने पत्थर।

अजिन, दर्भ, पा�™ाश, कमंड�™ु-एक �"र तप के साधन,
एक �"र हैं टँ�-े धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशा�™ी,
�™ौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमा�™ी।

श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती त�™वार?

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति ज�-ाने को?
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई यो�-ी से युक्ति सीखने आया है?

परशु �"र तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृं�-ार,
क्�™ीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता त�™वार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से �™ड़ता है,
तन की समर-भूमि में �™ेकिन, काम खड्�- ही करता है।

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवा�™ा?
एक साथ यज्ञा�-्नि �"र असि की पूजा करनेवा�™ा?
कहता है इतिहास, ज�-त् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटि�™ का�™-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विम�™,
शाप �"र शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्ब�™।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम ब�™शा�™ी का,
भृ�-ु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपा�™ी का।

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर �"र थकान मिटाती है।

कर्ण मु�-्ध हो भक्ति-भाव में म�-्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सह�™ाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सज�- है, उचट जाय �-ुरुवर की कच्ची नींद नहीं।

'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चा�™न,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अं�-ों में है क्षमता कितनी,
�"र रात-दिन मुझ पर दिख�™ाने रहते ममता कितनी।

'कहते हैं, '�" वत्स! पुष्टिकर भो�- न तू यदि खाये�-ा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पाये�-ा?
अनु�-ामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जाय�-ा �™हू, बचे�-ा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।

'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे च�™ाता हूँ,
�"र नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त ज�™ाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से हो�-ी, बना अ�-र तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जाय�-ी तुझे भूख सत्यानाशी।

'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, �™ोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो �™हर आ�- की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खे�-ा रोक अभी से खाने पर?
कर �™ेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

'ब्राह्मण का है धर्म त्या�-, पर, क्या बा�™क भी त्या�-ी हों?
जन्म साथ, शि�™ोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरा�-ी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? �-िरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌�- क्षत्रिय-कर में।

खड्‌�- बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,
इसी�™िए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।
�"र करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की �™िप्सा रण की।
�"' रण भी किस�™िए? नहीं ज�- से दुख-दैन्य भ�-ाने को,
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर �™ाने को।

'रण केव�™ इस�™िए कि राजे �"र सुखी हों, मानी हों,
�"र प्रजाएँ मि�™ें उन्हें, वे �"र अधिक अभिमानी हों।
रण केव�™ इस�™िए कि वे क�™्पित अभाव से छूट सकें,
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को �™ूट सकें।

'रण केव�™ इस�™िए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डो�™े,
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बो�™े।
ज्यों-ज्यों मि�™ती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,
�"र जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का ब�™ है,
ब्राह्मण खड़ा सामने केव�™ �™िए शंख-�-ं�-ाज�™ है।
कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

'�"र कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
च�™ती नहीं यहाँ पंडित की, च�™ती नहीं तपस्वी की,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।
जो भी खि�™ता फू�™, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।
चारों �"र �™ोभ की ज्वा�™ा, चारों �"र भो�- की जय;
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा प�™-प�™ निश्चय।

'जब तक भो�-ी भूप प्रजा�"ं के नेता कह�™ायें�-े,
ज्ञान, त्या�-, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायें�-े।
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवा�™े।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवा�™े,

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, क�™ाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं, क�™्पना, ज्ञान, उज्ज्व�™ चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचाने�-ा,
राजा�"ं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह माने�-ा,

'तब तक पड़ी आ�- में धरती, इसी तरह अकु�™ाये�-ी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पाये�-ी।
थकी जीभ समझा कर, �-हरी �™�-ी ठेस अभि�™ाषा को,
भूप समझता नहीं �"र कुछ, छोड़ खड्‌�- की भाषा को।

'रोक-टोक से नहीं सुने�-ा, नृप समाज अविचारी है,
�-्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।
इसी�™िए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌�- धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

'रोज कहा करते हैं �-ुरुवर, 'खड्‌�- महाभयकारी है,
इसे उठाने का ज�- में हर एक नहीं अधिकारी है।
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोम�™ भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता �"र तपस्या का ब�™ भी।

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌�- उठाता है,
मानवता के महा�-ुणों की सत्ता भू�™ न जाता है।
सीमित जो रख सके खड्‌�- को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत त�™वार उठाने दो।

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिख�™ाता हूँ,
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरे�-ी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जु�-ा धरे�-ी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीत�™,
तुम अवश्य ढो�"�-े उसको मुझमें है जो तेज, अन�™।

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमा�"�-े,
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जा�"�-े।
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच �"र कुण्ड�™-धारी,
तप कर सकते �"र पिता-माता किसके इतना भारी?

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने �™�-ते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव �-्�™ानि के ज�-ते हैं।
�-ुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी ख�™ा हो�-ा?
�"र शिष्य ने कभी किसी �-ुरु को इस तरह छ�™ा हो�-ा?

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं �"र दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
�"र पाँव पड़ने से भी क्या �-ूढ़ ज्ञान सिख�™ाते वे,
एक�™व्य-सा नहीं अँ�-ूठा क्या मेरा कटवाते वे?

'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच �"र कुण्ड�™-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अत�™ में, �-ुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-�-ोत्र के ब�™ से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?

'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कु�™ के अभिमानी हो?
म�-र, मनुज क्या करे? जन्म �™ेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति �"र कु�™ अपने बस की तो है बात नहीं।

'मैं कहता हूँ, अ�-र विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्म�™ोक से ही नीचे भूमण्ड�™ पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?

'कौन जन्म �™ेता किस कु�™ में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कु�™ पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे �-ुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें �™ाख चाहे खोटे।'

�-ुरु को �™िए कर्ण चिन्तन में था जब म�-्न, अच�™ बैठा,
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।
वज्रदंष्ट्र वह �™�-ा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,
�"र बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।

कर्ण विक�™ हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,
बिना हि�™ाये अं�- कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।

किन्तु, पाँव के हि�™ते ही �-ुरुवर की नींद उचट जाती,
सहम �-यी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्व�™ छाती।
सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँ�-ा,
�-ुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं �™ूँ�-ा।

बैठा रहा अच�™ आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,
आह निका�™े बिना, शि�™ा-सी सहनशी�™ता को धारे।
किन्तु, �™हू की �-र्म धार जो सहसा आन �™�-ी तन में,
परशुराम ज�- पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।

कर्ण झपट कर उठा इं�-ितों में �-ुरु से आज्ञा �™ेकर,
बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँ�-�™ी देकर।
परशुराम बो�™े- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,
सहता रहा अच�™, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।'

तनिक �™जाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको,
महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?
मैंने सोचा, हि�™ा-डु�™ा तो वृथा आप ज�- जायें�-े,
क्षण भर को विश्राम मि�™ा जो नाहक उसे �-ँवायें�-े।

'निश्च�™ बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जाये�-ा,
छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचाये�-ा?
पर, यह तो भीतर धँसता ही �-या, मुझे हैरान किया,
�™ज्जित हूँ इसी�™िए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख �™िया।'

परशुराम �-ंभीर हो �-ये सोच न जाने क्या मन में,
फिर सहसा क्रोधा�-्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।
दाँत पीस, आँखें तरेरकर बो�™े- 'कौन छ�™ी है तू?
ब्राह्मण है या �"र किसी अभिजन का पुत्र ब�™ी है तू?

'सहनशी�™ता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,
किसी �™क्ष्य के �™िए नहीं अपमान-ह�™ाह�™ पीता है।
सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,
बुद्धि च�™ाती जिसे, तेज का कर सकता ब�™िदान वही।

'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण ति�™-ति�™ कर ज�™े, नहीं यह हो सकता,
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?
कसक भो�-ता हुआ विप्र निश्च�™ कैसे रह सकता है?
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।

'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फ�™ पाये�-ा,
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जाये�-ा।'
'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' �-िरा कर्ण �-ुरु के पद पर,
मुख विवर्ण हो �-या, अं�- काँपने �™�-े भय से थर-थर!

'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभि�™ाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ
छ�™ी नहीं मैं हाय, किन्तु छ�™ का ही तो यह काम हुआ,
आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।

'बड़ा �™ोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।
पर, शंका थी मुझे, सत्य का अ�-र पता पा जायें�-े,
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायें�-े।

'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,
करें देव विश्वास, भावना �"र न थी कोई खोटी।
पर इतने से भी �™ज्जा में हाय, �-ड़ा-सा जाता हूँ,
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।

'छ�™ से पाना मान ज�-त् में कि�™्विष है, म�™ ही तो है,
ऊँचा बना आपके आ�-े, सचमुच यह छ�™ ही तो है।
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, ब�™ी होकर,
अब जाऊँ�-ा कहाँ स्वयं �-ुरु के सामने छ�™ी होकर?

'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,
एक कसक रह �-यी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।
�-ुरु की कृपा! शाप से ज�™कर अभी भस्म हो जाऊँ�-ा,
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँ�-ा?

'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पाये�-ी?
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमाये�-ी।
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँ�-ा मैं?
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँ�-ा मैं?

'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँ�-े�-ा,
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्या�-े�-ा।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण �-ँवाने दें।'

�™िपट �-या �-ुरु के चरणों से विक�™ कर्ण इतना कहकर,
दो कणिकाएँ �-िरीं अश्रु की �-ुरु की आँखों से बह कर।
बो�™े- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
निश्च�™ सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?

'अब समझा, किस�™िए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
देखें अ�-णित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिख�™ाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

'तूने जीत �™िया था मुझको निज पवित्रता के ब�™ से,
क्या था पता, �™ूटने आया है कोई मुझको छ�™ से?
किसी �"र पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,
सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।

'नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,
तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।
पापी, बो�™ अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचा�™क है,
परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बा�™क है।

'सूत-वंश में मि�™ा सूर्य-सा कैसे तेज प्रब�™ तुझको?
किसने �™ाकर दिये, कहाँ से कवच �"र कुण्ड�™ तुझको?
सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?
ज�™ते हुए क्रोध की ज्वा�™ा, �™ेकिन कहाँ उतारूँ मैं?'

पद पर बो�™ा कर्ण, 'दिया था जिसको आँखों का पानी,
करना हो�-ा �-्रहण उसी को अन�™ आज हे �-ुरु ज्ञानी।
बरसाइये अन�™ आँखों से, सिर पर उसे सँभा�™ूँ�-ा,
दण्ड भो�- ज�™कर मुनिसत्तम! छ�™ का पाप छुड़ा �™ूँ�-ा।'

परशुराम ने कहा-'कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,
तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?
पर, तूने छ�™ किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पाये�-ा,
परशुराम का क्रोध भयानक निष्फ�™ कभी न जाये�-ा।

'मान �™िया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,
पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर �™ेता हूँ।
सिख�™ाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आये�-ा,
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भू�™ तू जाये�-ा।

कर्ण विक�™ हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या �-ुरुवर?
दिया शाप अत्यन्त निदारुण, �™िया नहीं जीवन क्यों हर?
वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों �™ेते हैं?
अब किस सुख के �™िए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'

परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अट�™ है, सहन करो,
जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर �™े सादर वहन करो।
इस महेन्द्र-�-िरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,
मेरा संचित निखि�™ ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।

'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?
एक शस्त्र-ब�™ से न वीर, कोई सब दिन कह�™ाता है।
नयी क�™ा, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,
नये भाव, नूतन उमं�- से, वीर बने रहते नूतन।

'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच �"र कुण्ड�™-धारी,
इनके रहते तुम्हें जीत पाये�-ा कौन सुभट भारी।
अच्छा �™ो वर भी कि विश्व में तुम महान् कह�™ा�"�-े,
भारत का इतिहास कीर्ति से �"र धव�™ कर जा�"�-े।

'अब जा�", �™ो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,
रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।
हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,
सोच-सोच यह बहुत विक�™ हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?

'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।
इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।
अब जा�" तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसं�- करो।
देखो मत यों सज�™ दृष्टि से, व्रत मेरा मत भं�- करो।

'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,
मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने क्यों, जय?
अनायास �-ुण-शी�™ तुम्हारे, मन में उ�-ते आते हैं,
भीतर किसी अश्रु-�-ं�-ा में मुझे बोर नह�™ाते हैं।

जा�", जा�" कर्ण! मुझे बि�™कु�™ असं�- हो जाने दो
बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।
भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये,
फिरा न �™ूँ अभिशाप, पिघ�™कर वाणी नहीं उ�™ट जाये।'

इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा �™िया आनन अपना,
जहाँ मि�™ा था, वहीं कर्ण का बिखर �-या प्यारा सपना।
छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया,
�"र उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।

परशुधर के चरण की धू�™ि �™ेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,
निराशा सेविक�™, टूटा हुआ-सा, किसी �-िरि-श्रृं�-ा से छूटा हुआ-सा,
च�™ा खोया हुआ-सा कर्ण मन में,
कि जैसे चाँद च�™ता हो �-�-न में।


तृतीय सर्�-

1
हो �-या पूर्ण अज्ञात वास, 
पाडंव �™ौटे वन से सहास, 
पावक में कनक-सदृश तप कर, 
वीरत्व �™िए कुछ �"र प्रखर, 
नस-नस में तेज-प्रवाह �™िये, 
कुछ �"र नया उत्साह �™िये।

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सच है, विपत्ति जब आती है, 
कायर को ही दह�™ाती है, 
शूरमा नहीं विच�™ित होते, 
क्षण एक नहीं धीरज खोते, 
विघ्नों को �-�™े �™�-ाते हैं, 
काँटों में राह बनाते हैं। 

मुख से न कभी उफ कहते हैं, 
संकट का चरण न �-हते हैं, 
जो आ पड़ता सब सहते हैं, 
उद्यो�--निरत नित रहते हैं, 
शू�™ों का मू�™ नसाने को, 
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। 

है कौन विघ्न ऐसा ज�- में, 
टिक सके वीर नर के म�- में 
खम ठोंक ठे�™ता है जब नर, 
पर्वत के जाते पाँव उखड़। 
मानव जब जोर �™�-ाता है, 
पत्थर पानी बन जाता है। 

�-ुण बड़े एक से एक प्रखर, 
हैं छिपे मानवों के भीतर, 
मेंहदी में जैसे �™ा�™ी हो, 
वर्तिका-बीच उजिया�™ी हो। 
बत्ती जो नहीं ज�™ाता है 
रोशनी नहीं वह पाता है। 

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, 
झरती रस की धारा अखण्ड, 
मेंहदी जब सहती है प्रहार, 
बनती �™�™ना�"ं का सिं�-ार। 
जब फू�™ पिरोये जाते हैं, 
हम उनको �-�™े �™�-ाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ? 
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ? 
अतु�™ित यश क्रेता कौन हुआ? 
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ? 
जिसने न कभी आराम किया, 
विघ्नों में रहकर नाम किया। 

जब विघ्न सामने आते हैं, 
सोते से हमें ज�-ाते हैं, 
मन को मरोड़ते हैं प�™-प�™, 
तन को झँझोरते हैं प�™-प�™। 
सत्पथ की �"र �™�-ाकर ही, 
जाते हैं हमें ज�-ाकर ही। 

वाटिका �"र वन एक नहीं, 
आराम �"र रण एक नहीं। 
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, 
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड। 
वन में प्रसून तो खि�™ते हैं, 
बा�-ों में शा�™ न मि�™ते हैं। 

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर, 
छाया देता केव�™ अम्बर, 
विपदाएँ दूध पि�™ाती हैं, 
�™ोरी आँधियाँ सुनाती हैं। 
जो �™ाक्षा-�-ृह में ज�™ते हैं, 
वे ही शूरमा निक�™ते हैं। 

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, 
मेरे किशोर! मेरे ताजा! 
जीवन का रस छन जाने दे, 
तन को पत्थर बन जाने दे। 
तू स्वयं तेज भयकारी है, 
क्या कर सकती चिन�-ारी है? 

वर्षों तक वन में घूम-घूम, 
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, 
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, 
पांडव आये कुछ �"र निखर। 
सौभा�-्य न सब दिन सोता है, 
देखें, आ�-े क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, 
सबको सुमार्�- पर �™ाने को, 
दुर्योधन को समझाने को, 
भीषण विध्वंस बचाने को, 
भ�-वान् हस्तिनापुर आये, 
पांडव का संदेशा �™ाये। 

'दो न्याय अ�-र तो आधा दो, 
पर, इसमें भी यदि बाधा हो, 
तो दे दो केव�™ पाँच �-्राम, 
रक्खो अपनी धरती तमाम। 
हम वहीं खुशी से खायें�-े, 
परिजन पर असि न उठायें�-े! 

दुर्योधन वह भी दे ना सका, 
आशिष समाज की �™े न सका, 
उ�™टे, हरि को बाँधने च�™ा, 
जो था असाध्य, साधने च�™ा। 
जब नाश मनुज पर छाता है, 
पह�™े विवेक मर जाता है। 

हरि ने भीषण हुंकार किया, 
अपना स्वरूप-विस्तार किया, 
ड�-म�--ड�-म�- दि�-्�-ज डो�™े, 
भ�-वान् कुपित होकर बो�™े- 
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, 
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। 

यह देख, �-�-न मुझमें �™य है, 
यह देख, पवन मुझमें �™य है, 
मुझमें वि�™ीन झंकार सक�™, 
मुझमें �™य है संसार सक�™। 
अमरत्व फू�™ता है मुझमें, 
संहार झू�™ता है मुझमें। 

'उदयाच�™ मेरा दीप्त भा�™, 
भूमंड�™ वक्षस्थ�™ विशा�™, 
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, 
मैनाक-मेरु प�- मेरे हैं। 
दिपते जो �-्रह नक्षत्र निकर, 
सब हैं मेरे मुख के अन्दर। 

'दृ�- हों तो दृश्य अकाण्ड देख, 
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, 
चर-अचर जीव, ज�-, क्षर-अक्षर, 
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर। 
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, 
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, 
शत कोटि विष्णु ज�™पति, धनेश, 
शत कोटि रुद्र, शत कोटि का�™, 
शत कोटि दण्डधर �™ोकपा�™। 
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, 
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें। 

'भू�™ोक, अत�™, पाता�™ देख, 
�-त �"र अना�-त का�™ देख, 
यह देख ज�-त का आदि-सृजन, 
यह देख, महाभारत का रण, 
मृतकों से पटी हुई भू है, 
पहचान, कहाँ इसमें तू है। 

'अम्बर में कुन्त�™-जा�™ देख, 
पद के नीचे पाता�™ देख, 
मुट्ठी में तीनों का�™ देख, 
मेरा स्वरूप विकरा�™ देख। 
सब जन्म मुझी से पाते हैं, 
फिर �™ौट मुझी में आते हैं। 

'जिह्वा से कढ़ती ज्वा�™ सघन, 
साँसों में पाता जन्म पवन, 
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, 
हँसने �™�-ती है सृष्टि उधर! 
मैं जभी मूँदता हूँ �™ोचन, 
छा जाता चारों �"र मरण। 

'बाँधने मुझे तो आया है, 
जंजीर बड़ी क्या �™ाया है? 
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, 
पह�™े तो बाँध अनन्त �-�-न। 
सूने को साध न सकता है, 
वह मुझे बाँध कब सकता है? 

'हित-वचन नहीं तूने माना, 
मैत्री का मू�™्य न पहचाना, 
तो �™े, मैं भी अब जाता हूँ, 
अन्तिम संक�™्प सुनाता हूँ। 
याचना नहीं, अब रण हो�-ा, 
जीवन-जय या कि मरण हो�-ा। 

'टकरायें�-े नक्षत्र-निकर, 
बरसे�-ी भू पर वह्नि प्रखर, 
फण शेषना�- का डो�™े�-ा, 
विकरा�™ का�™ मुँह खो�™े�-ा। 
दुर्योधन! रण ऐसा हो�-ा। 
फिर कभी नहीं जैसा हो�-ा। 

'भाई पर भाई टूटें�-े, 
विष-बाण बूँद-से छूटें�-े, 
वायस-श्रृ�-ा�™ सुख �™ूटें�-े, 
सौभा�-्य मनुज के फूटें�-े। 
आखिर तू भूशायी हो�-ा, 
हिंसा का पर, दायी हो�-ा।' 

थी सभा सन्न, सब �™ो�- डरे, 
चुप थे या थे बेहोश पड़े। 
केव�™ दो नर ना अघाते थे, 
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। 
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, 
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

2
भ�-वान सभा को छोड़ च�™े, 
करके रण �-र्जन घोर च�™े 
सामने कर्ण सकुचाया सा, 
आ मि�™ा चकित भरमाया सा 
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, 
�™े चढ़े उसे अपने रथ पर। 

रथ च�™ा परस्पर बात च�™ी, 
शम-दम की टेढी घात च�™ी, 
शीत�™ हो हरि ने कहा, "हाय, 
अब शेष नही कोई उपाय 
हो विवश हमें धनु धरना है, 
क्षत्रिय समूह को मरना है। 

"मैंने कितना कुछ कहा नहीं? 
विष-व्यं�- कहाँ तक सहा नहीं? 
पर, दुर्योधन मतवा�™ा है, 
कुछ नहीं समझने वा�™ा है 
चाहिए उसे बस रण केव�™, 
सारी धरती कि मरण केव�™ 

"हे वीर ! तुम्हीं बो�™ो अकाम, 
क्या वस्तु बड़ी थी पाँच �-्राम? 
वह भी कौरव को भारी है, 
मति �-ई मूढ़ की मरी है 
दुर्योधन को बोधूं कैसे? 
इस रण को अवरोधूं कैसे? 

"सोचो क्या दृश्य विकट हो�-ा, 
रण में जब का�™ प्रकट हो�-ा? 
बाहर शोणित की तप्त धार, 
भीतर विधवा�"ं की पुकार 
निरशन, विषण्ण बि�™्�™ायें�-े, 
बच्चे अनाथ चि�™्�™ायें�-े। 

"चिंता है, मैं क्या �"र करूं? 
शान्ति को छिपा किस �"ट धरूँ? 
सब राह बंद मेरे जाने, 
हाँ एक बात यदि तू माने, 
तो शान्ति नहीं ज�™ सकती है, 
समरा�-्नि अभी त�™ सकती है। 

"पा तुझे धन्य है दुर्योधन, 
तू एकमात्र उसका जीवन 
तेरे ब�™ की है आस उसे, 
तुझसे जय का विश्वास उसे 
तू सं�- न उसका छोडे�-ा, 
वह क्यों रण से मुख मोड़े�-ा? 

"क्या अघटनीय घटना करा�™? 
तू पृथा-कुक्षी का प्रथम �™ा�™, 
बन सूत अनादर सहता है, 
कौरव के द�™ में रहता है, 
शर-चाप उठाये आठ प्रहार, 
पांडव से �™ड़ने हो तत्पर। 

"माँ का सनेह पाया न कभी, 
सामने सत्य आया न कभी, 
किस्मत के फेरे में पड़ कर, 
पा प्रेम बसा दुश्मन के घर 
निज बंधू मानता है पर को, 
कहता है शत्रु सहोदर को। 

"पर कौन दोष इसमें तेरा? 
अब कहा मान इतना मेरा 
च�™ होकर सं�- अभी मेरे, 
है जहाँ पाँच भ्राता तेरे 
बिछुड़े भाई मि�™ जायें�-े, 
हम मि�™कर मोद मनाएं�-े। 

"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, 
ब�™ बुद्धि, शी�™ में परम श्रेष्ठ 
मस्तक पर मुकुट धरें�-े हम, 
तेरा अभिषेक करें�-े हम 
आरती समोद उतारें�-े, 
सब मि�™कर पाँव पखारें�-े। 

"पद-त्राण भीम पहनाये�-ा, 
धर्माचिप चंवर डु�™ाये�-ा 
पहरे पर पार्थ प्रवर हों�-े, 
सहदेव-नकु�™ अनुचर हों�-े 
भोजन उत्तरा बनाये�-ी, 
पांचा�™ी पान खि�™ाये�-ी 

"आहा ! क्या दृश्य सुभ�- हो�-ा ! 
आनंद-चमत्कृत ज�- हो�-ा 
सब �™ो�- तुझे पहचानें�-े, 
अस�™ी स्वरूप में जानें�-े 
खोयी मणि को जब पाये�-ी, 
कुन्ती फू�™ी न समाये�-ी। 

"रण अनायास रुक जाये�-ा, 
कुरुराज स्वयं झुक जाये�-ा 
संसार बड़े सुख में हो�-ा, 
कोई न कहीं दुःख में हो�-ा 
सब �-ीत खुशी के �-ायें�-े, 
तेरा सौभा�-्य मनाएं�-े। 

"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, 
साम्राज्य समर्पण करता हूँ 
यश मुकुट मान सिंहासन �™े, 
बस एक भीख मुझको दे दे 
कौरव को तज रण रोक सखे, 
भू का हर भावी शोक सखे 

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, 
क्षण एक तनिक �-ंभीर हुआ, 
फिर कहा "बड़ी यह माया है, 
जो कुछ आपने बताया है 
दिनमणि से सुनकर वही कथा 
मैं भो�- चुका हूँ �-्�™ानि व्यथा 

"जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, 
उन्मन यह सोचा करता हूँ, 
कैसी हो�-ी वह माँ करा�™, 
निज तन से जो शिशु को निका�™ 
धारा�"ं में धर आती है, 
अथवा जीवित दफनाती है? 

"सेवती मास दस तक जिसको, 
पा�™ती उदर में रख जिसको, 
जीवन का अंश खि�™ाती है, 
अन्तर का रुधिर पि�™ाती है 
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं, 
ना�-िन हो�-ी वह नारि नहीं। 

"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, 
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये 
सुनना न चाहते तनिक श्रवण, 
जिस माँ ने मेरा किया जनन 
वह नहीं नारि कु�™्पा�™ी थी, 
सर्पिणी परम विकरा�™ी थी 

"पत्थर समान उसका हिय था, 
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था 
�-ोदी में आ�- �™�-ा कर के, 
मेरा कु�™-वंश छिपा कर के 
दुश्मन का उसने काम किया, 
माता�"ं को बदनाम किया 

"माँ का पय भी न पीया मैंने, 
उ�™टे अभिशाप �™िया मैंने 
वह तो यशस्विनी बनी रही, 
सबकी भौ मुझ पर तनी रही 
कन्या वह रही अपरिणीता, 
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता 

"मैं जाती �-ोत्र से दीन, हीन, 
राजा�"ं के सम्मुख म�™ीन, 
जब रोज अनादर पाता था, 
कह 'शूद्र' पुकारा जाता था 
पत्थर की छाती फटी नही, 
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं 

"मैं सूत-वंश में प�™ता था, 
अपमान अन�™ में ज�™ता था, 
सब देख रही थी दृश्य पृथा, 
माँ की ममता पर हुई वृथा 
छिप कर भी तो सुधि �™े न सकी 
छाया अंच�™ की दे न सकी 

"पा पाँच तनय फू�™ी-फू�™ी, 
दिन-रात बड़े सुख में भू�™ी 
कुन्ती �-ौरव में चूर रही, 
मुझ पतित पुत्र से दूर रही 
क्या हुआ की अब अकु�™ाती है? 
किस कारण मुझे बु�™ाती है? 

"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, 
सुत के धन धाम �-ंवाने पर 
या महानाश के छाने पर, 
अथवा मन के घबराने पर 
नारियाँ सदय हो जाती हैं 
बिछुडोँ को �-�™े �™�-ाती है? 

"कुन्ती जिस भय से भरी रही, 
तज मुझे दूर हट खड़ी रही 
वह पाप अभी भी है मुझमें, 
वह शाप अभी भी है मुझमें 
क्या हुआ की वह डर जाये�-ा? 
कुन्ती को काट न खाये�-ा? 

"सहसा क्या हा�™ विचित्र हुआ, 
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ? 
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, 
मेरा सुख या पांडव की जय? 
यह अभिनन्दन नूतन क्या है? 
केशव! यह परिवर्तन क्या है? 

"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, 
सब �™ो�- हुए हित के कामी 
पर ऐसा भी था एक समय, 
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय 
किंचित न स्नेह दर्शाता था, 
विष-व्यं�- सदा बरसाता था 

"उस समय सुअंक �™�-ा कर के, 
अंच�™ के त�™े छिपा कर के 
चुम्बन से कौन मुझे भर कर, 
ताड़ना-ताप �™ेती थी हर? 
राधा को छोड़ भजूं किसको, 
जननी है वही, तजूं किसको? 

"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, 
सच है की झूठ मन में �-ुनिये 
धू�™ों में मैं था पडा हुआ, 
किसका सनेह पा बड़ा हुआ? 
किसने मुझको सम्मान दिया, 
नृपता दे महिमावान किया? 

"अपना विकास अवरुद्ध देख, 
सारे समाज को क्रुद्ध देख 
भीतर जब टूट चुका था मन, 
आ �-या अचानक दुर्योधन 
निश्छ�™ पवित्र अनुरा�- �™िए, 
मेरा समस्त सौभा�-्य �™िए 

"कुन्ती ने केव�™ जन्म दिया, 
राधा ने माँ का कर्म किया 
पर कहते जिसे अस�™ जीवन, 
देने आया वह दुर्योधन 
वह नहीं भिन्न माता से है 
बढ़ कर सोदर भ्राता से है 

"राजा रंक से बना कर के, 
यश, मान, मुकुट पहना कर के 
बांहों में मुझे उठा कर के, 
सामने ज�-त के �™ा करके 
करतब क्या क्या न किया उसने 
मुझको नव-जन्म दिया उसने 

"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, 
जानते सत्य यह सूर्य-सोम 
तन मन धन दुर्योधन का है, 
यह जीवन दुर्योधन का है 
सुर पुर से भी मुख मोडूँ�-ा, 
केशव ! मैं उसे न छोडूं�-ा 

"सच है मेरी है आस उसे, 
मुझ पर अटूट विश्वास उसे 
हाँ सच है मेरे ही ब�™ पर, 
ठाना है उसने महासमर 
पर मैं कैसा पापी हूँ�-ा? 
दुर्योधन को धोखा दूँ�-ा? 

"रह साथ सदा खे�™ा खाया, 
सौभा�-्य-सुयश उससे पाया 
अब जब विपत्ति आने को है, 
घनघोर प्र�™य छाने को है 
तज उसे भा�- यदि जाऊं�-ा 
कायर, कृतघ्न कह�™ाऊँ�-ा 

"मैं भी कुन्ती का एक तनय, 
जिसको हो�-ा इसका प्रत्यय 
संसार मुझे धिक्कारे�-ा, 
मन में वह यही विचारे�-ा 
फिर �-या तुरत जब राज्य मि�™ा, 
यह कर्ण बड़ा पापी निक�™ा 

"मैं ही न सहूं�-ा विषम डंक, 
अर्जुन पर भी हो�-ा क�™ंक 
सब �™ो�- कहें�-े डर कर ही, 
अर्जुन ने अद्भुत नीति �-ही 
च�™ चा�™ कर्ण को फोड़ �™िया 
सम्बन्ध अनोखा जोड़ �™िया 

"कोई भी कहीं न चूके�-ा, 
सारा ज�- मुझ पर थूके�-ा 
तप त्या�- शी�™, जप यो�- दान, 
मेरे हों�-े मिट्टी समान 
�™ोभी �™ा�™ची कहाऊँ�-ा 
किसको क्या मुख दिख�™ाऊँ�-ा? 

"जो आज आप कह रहे आर्य, 
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य 
सुन वही हुए �™ज्जित होते, 
हम क्यों रण को सज्जित होते 
मि�™ता न कर्ण दुर्योधन को, 
पांडव न कभी जाते वन को 

"�™ेकिन नौका तट छोड़ च�™ी, 
कुछ पता नहीं किस �"र च�™ी 
यह बीच नदी की धारा है, 
सूझता न कू�™-किनारा है 
�™े �™ी�™ भ�™े यह धार मुझे, 
�™ौटना नहीं स्वीकार मुझे 

"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, 
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ? 
कु�™ की पोशाक पहन कर के, 
सिर उठा च�™ूँ कुछ तन कर के? 
इस झूठ-मूठ में रस क्या है? 
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है? 


"सिर पर कु�™ीनता का टीका, 
भीतर जीवन का रस फीका 
अपना न नाम जो �™े सकते, 
परिचय न तेज से दे सकते 
ऐसे भी कुछ नर होते हैं 
कु�™ को खाते �"' खोते हैं

"विक्रमी पुरुष �™ेकिन सिर पर, 
च�™ता ना छत्र पुरखों का धर। 
अपना ब�™-तेज ज�-ाता है, 
सम्मान ज�-त से पाता है। 
सब देख उसे �™�™चाते हैं, 
कर विविध यत्न अपनाते हैं 

"कु�™-जाति नही साधन मेरा, 
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा। 
कु�™ ने तो मुझको फेंक दिया, 
मैने हिम्मत से काम �™िया 
अब वंश चकित भरमाया है, 
खुद मुझे ढूँडने आया है। 

"�™ेकिन मैं �™ौट च�™ूँ�-ा क्या? 
अपने प्रण से विचरूँ�-ा क्या? 
रण मे कुरूपति का विजय वरण, 
या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, 
हे कृष्ण यही मति मेरी है, 
तीसरी नही �-ति मेरी है। 

"मैत्री की बड़ी सुखद छाया, 
शीत�™ हो जाती है काया, 
धिक्कार-यो�-्य हो�-ा वह नर, 
जो पाकर भी ऐसा तरुवर, 
हो अ�™�- खड़ा कटवाता है 
खुद आप नहीं कट जाता है। 

"जिस नर की बाह �-ही मैने, 
जिस तरु की छाँह �-हि मैने, 
उस पर न वार च�™ने दूँ�-ा, 
कैसे कुठार च�™ने दूँ�-ा, 
जीते जी उसे बचाऊँ�-ा, 
या आप स्वयं कट जाऊँ�-ा, 

"मित्रता बड़ा अनमो�™ रतन, 
कब उसे तो�™ सकता है धन? 
धरती की तो है क्या बिसात? 
आ जाय अ�-र बैकुंठ हाथ। 
उसको भी न्योछावर कर दूँ, 
कुरूपति के चरणों में धर दूँ। 

"सिर �™िए स्कंध पर च�™ता हूँ, 
उस दिन के �™िए मच�™ता हूँ, 
यदि च�™े वज्र दुर्योधन पर, 
�™े �™ूँ बढ़कर अपने ऊपर। 
कटवा दूँ उसके �™िए �-�™ा, 
चाहिए मुझे क्या �"र भ�™ा? 

"सम्राट बनें�-े धर्मराज, 
या पाए�-ा कुरूरज ताज, 
�™ड़ना भर मेरा कम रहा, 
दुर्योधन का सं�-्राम रहा, 
मुझको न कहीं कुछ पाना है, 
केव�™ ऋण मात्र चुकाना है। 

"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? 
साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? 
क्या नहीं आपने भी जाना? 
मुझको न आज तक पहचाना? 
जीवन का मू�™्य समझता हूँ, 
धन को मैं धू�™ समझता हूँ। 

"धनराशि जो�-ना �™क्ष्य नहीं, 
साम्राज्य भो�-ना �™क्ष्य नहीं। 
भुजब�™ से कर संसार विजय, 
अ�-णित समृद्धियों का सन्चय, 
दे दिया मित्र दुर्योधन को, 
तृष्णा छू भी ना सकी मन को। 

"वैभव वि�™ास की चाह नहीं, 
अपनी कोई परवाह नहीं, 
बस यही चाहता हूँ केव�™, 
दान की देव सरिता निर्म�™, 
करत�™ से झरती रहे सदा, 
निर्धन को भरती रहे सदा।

"तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? 
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? 
चिंता प्रभूत, अत्य�™्प हास, 
कुछ चाकचिक्य, कुछ प�™ वि�™ास, 
पर वह भी यहीं �-वाना है, 
कुछ साथ नही �™े जाना है। 

"मुझसे मनुष्य जो होते हैं, 
कंचन का भार न ढोते हैं, 
पाते हैं धन बिखराने को, 
�™ाते हैं रतन �™ुटाने को, 
ज�- से न कभी कुछ �™ेते हैं, 
दान ही हृदय का देते हैं। 

"प्रासादों के कनकाभ शिखर, 
होते कबूतरों के ही घर, 
मह�™ों में �-रुड़ ना होता है, 
कंचन पर कभी न सोता है। 
रहता वह कहीं पहाड़ों में, 
शै�™ों की फटी दरारों में। 

"होकर सुख-समृद्धि के अधीन, 
मानव होता निज तप क्षीण, 
सत्ता किरीट मणिमय आसन, 
करते मनुष्य का तेज हरण। 
नर विभव हेतु �™ा�™चाता है, 
पर वही मनुज को खाता है। 

"चाँदनी पुष्प-छाया मे प�™, 
नर भ�™े बने सुमधुर कोम�™, 
पर अमृत क्�™ेश का पिए बिना, 
आताप अंधड़ में जिए बिना, 
वह पुरुष नही कह�™ा सकता, 
विघ्नों को नही हि�™ा सकता। 

"उड़ते जो झंझावतों में, 
पीते सो वारी प्रपातो में, 
सारा आकाश अयन जिनका, 
विषधर भुजं�- भोजन जिनका, 
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं, 
धरती का हृदय जुड़ाते हैं। 

"मैं �-रुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, 
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज। 
दुर्योधन पर है विपद घोर, 
सकता न किसी विधि उसे छोड़, 
रण-खेत पाटना है मुझको, 
अहिपाश काटना है मुझको। 

"सं�-्राम सिंधु �™हराता है, 
सामने प्र�™य घहराता है, 
रह रह कर भुजा फड़कती है, 
बिज�™ी-सी नसें कड़कतीं हैं, 
चाहता तुरत मैं कूद पडू, 
जीतूं की समर मे डूब मरूं। 

"अब देर नही कीजै केशव, 
अवसेर नही कीजै केशव। 
धनु की डोरी तन जाने दें, 
सं�-्राम तुरत ठन जाने दें, 
तांडवी तेज �™हराए�-ा, 
संसार ज्योति कुछ पाए�-ा। 

"पर, एक विनय है मधुसूदन, 
मेरी यह जन्मकथा �-ोपन, 
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए, 
जैसे हो इसे छिपा रहिए, 
वे इसे जान यदि पाएँ�-े, 
सिंहासन को ठुकराएँ�-े। 

"साम्राज्य न कभी स्वयं �™ें�-े, 
सारी संपत्ति मुझे दें�-े। 
मैं भी ना उसे रख पाऊँ�-ा, 
दुर्योधन को दे जाऊँ�-ा। 
पांडव वंचित रह जाएँ�-े, 
दुख से न छूट वे पाएँ�-े। 

"अच्छा अब च�™ा प्रणाम आर्य, 
हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य। 
रण मे ही अब दर्शन हों�-े, 
शार से चरण:स्पर्शन हों�-े। 
जय हो दिनेश नभ में विहरें, 
भूत�™ मे दिव्य प्रकाश भरें।" 

रथ से राधेय उतार आया, 
हरि के मन मे विस्मय छाया, 
बो�™े कि "वीर शत बार धन्य, 
तुझसा न मित्र कोई अनन्य, 
तू कुरूपति का ही नही प्राण, 
नरता का है भूषण महान।"

चतुर्थ सर्�-

प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर ब�™ि दे�-ा ?
तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतु�™नीय यश �™े�-ा ?
हरि के सन्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,
धन्य-धन्य राधेय ! बन्धुता के अद्भुत अभिमानी ।

पर जाने क्यों नियम एक अद्भुत ज�- में च�™ता है,
भो�-ी सुख भो�-ता, तपस्वी �"र अधिक ज�™ता है ।
हरिआ�™ी है जहाँ, ज�™द भी उसी खण्ड के वासी,
मरु की भूमि म�-र। रह जाती है प्यासी की प्यासी ।

�"र, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
सचमुच, उसके �™िए उसे सब-कुछ देना पड़ता है |
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
दु:ख भो�-ता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर ।

पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है,
वहाँ किसी प्रज्व�™ित वीर नर की आभा बसती है;
जिसने छोड़ी नहीं �™ीक विपदा�"ं से घबराकर ।
दो ज�- को रोशनी टेक पर अपनी जान �-ँवाकर ।

नरता का आदर्श तपस्या के भीतर प�™ता है,
देता वही प्रकाश, आ�- में जो अभीत ज�™ता है ।
आजीवन झे�™ते दाह का दंश वीर व्रतधारी,
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी ।

'प्रण करना है सहज, कठिन है �™ेकिन, उसे निभाना,
सबसे बडी जांचच है व्रत का अन्तिम मो�™ चुकाना ।
अन्तिम मू�™्य न दिया अ�-र, तो �"र मू�™्य देना क्या ?
करने �™�-े मोह प्राणों का तो फिर प्रण �™ेना क्या ?

सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,
तबतक सभी बने रह सकते हैं त्या�-ी, ब�™िदानी ।
पर, महँ�-ी में मो�™ तपस्या का देना दुष्कर है,
हँस कर दे यह मू�™्य, न मि�™ता वह मनुष्य घर-घर है ।

जीवन का अभियान दान-ब�™ से अजस्त्र च�™ता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अन�™्प ज�™ता है,
�"र दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्या�- मान �™ेते हैं।

यह न स्वत्व का त्या�-, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु के पह�™े ही मरना है।
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फ�™ देते हैं,
�-िरने से उसको सँभा�™, क्यों रोक नही �™ेते हैं?

ऋतु के बाद फ�™ों का रुकना, डा�™ों का सडना है।
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।
देते तरु इस�™िए की मत रेशों मे कीट समाए,
रहें डा�™ियां स्वस्थ �"र फिर नये-नये फ�™ आएं।

सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।
आत्मदान के साथ ज�-ज्जीवन का ऋजु नाता है,
जो देता जितना बद�™े मे उतना ही पता है

दिख�™ाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,
व्रत का अंतिम मो�™ चुकाते हुए न जो रोते हैं,
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।

जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,
जहाँ कहीं है ज्योति ज�-त में, जहाँ कहीं उजिया�™ा,
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मो�™ चुकानेवा�™ा।

व्रत का अंतिम मो�™ राम ने दिया, त्या�- सीता को,
जीवन की सं�-िनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अं�- कुतर कर,
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँ�-ते हुए सत्य पर अड़ कर।

ईसा ने संसार-हेतु शू�™ी पर प्राण �-ँवा कर,
अंतिम मू�™्य दिया �-ाँधी ने तीन �-ो�™ियाँ खाकर।
सुन अंतिम �™�™कार मो�™ माँ�-ते हुए जीवन की,
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।

हँसकर �™िया मरण �"ठों पर, जीवन का व्रत पा�™ा,
अमर हुआ सुकरात ज�-त मे पीकर विष का प्या�™ा।
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठो�™ी,
उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बो�™ी।

दान ज�-त का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं

वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,
पा�™ रहा था बहुत का�™ से एक पुण्य-प्रण भारी।
रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,
मुँह-माँ�-ा वह दान कर्ण से अनायास पाता था

थी विश्रुत यह बात कर्ण �-ुणवान �"र ज्ञानी हैं,
दीनों के अव�™म्ब, ज�-त के सर्वश्रेष्ट दानी हैं ।
जाकर उनसे कहो, पड़ी जिस पर जैसी विपदा हो,
�-ो, धरती, �-ज, वाजि मां�- �™ो, जो जितना भी चाहो ।

'नाहीं' सुनी कहां, किसने, कब, इस दानी के मुख से,
धन की कौन बिसात ? प्राण भी दे सकते वह सुख से ।
�"र दान देने में वे कितने विनम्र रहते हैं !
दीन याचकों से भी कैसे मधुर वचन कहते है ?

करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं भिखारी,
वरन्, मां�-ते जो कुछ उसके न्यायसिद्ध अधिकारी ।
�"र उमड़ती है प्रसन्न दृ�- में कैसी ज�™धारा,
मानों, सौंप रहे हों हमको ही वे न्यास हमारा ।

यु�--यु�- जियें कर्ण, द�™ितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं,
क�™्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं ।
पह�™े ऐसा दानवीर धरती पर कब आया था ?
इतने अधिक जनों को किसने यह सुख पहुंचाया था ?

�"र सत्य ही, कर्ण दानहित ही संचय करता था,
अर्जित कर बहु विभव नि:सव, दीनों का घर भरता था ।
�-ो, धरती, �-ज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहां जो पाया,
दानवीर ने हृदय खो�™ कर उसको वहीं �™ुटाया ।

फहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विम�™ पताका,
कर्ण नाम पड �-या दान की अतु�™नीय महिमा का।
श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,
अपना भा�-्य समझ भजते थे उसे भा�-्यहत प्राणी।

तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,
किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से।
व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,
कठिन मू�™्य माँ�-ने सामने भा�-्य देह धर आया।

एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य �-�-न को,
कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को।
कटि तक डूबा हुआ स�™ि�™ में किसी ध्यान मे रत-सा,
अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा।

हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विम�™ को,
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच �"र कुंड�™ को।
किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,
कद�™ी में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था।

विह�- �™ता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,
धूप, दीप, कर्पूर, फू�™, सब मि�™कर महक रहे थे।
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खो�™ा,
इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डो�™ा।

कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आ�",
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूना�"।
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है।

'माँ�-ो माँ�-ो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?
अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?
मेघ भ�™े �™ौटे उदास हो किसी रोज सा�-र से,
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।

'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
भ�-्यहीन मैने जीवन में �"र स्वाद क्या जाना?
आ�", उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे �™ेकर।

'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर �"र कौन दाता है?
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ �™े �™ेते हो,
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?

'दीनों का संतोष, भा�-्यहीनों की �-द�-द वाणी,
नयन कोर मे भरा �™बा�™ब कृतज्ञता का पानी,
हो जाना फिर हरा यु�-ों से मुरझाए अधरों का,
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का।

'इससे बढ़कर �"र प्राप्ति क्या जिस पर �-र्व करूँ मैं?
पर को जीवन मि�™े अ�-र तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?
मो�™-तो�™ कुछ नहीं, माँ�- �™ो जो कुछ तुम्हें सुहाए,
मुँहमाँ�-ा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ।

�-िरा �-हन सुन चकित �"र मन-ही-मन-कुछ भरमाया,
�™ता-�"ट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,
कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,
नहीं आज कोई त्रि�™ोक में कहीं आप-सा दानी।

'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,
प्रण पा�™न के �™िए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।
आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,
कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।

'�™ो�- दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बत�™ाते हैं,
शिवि-दधिचि-प्रह्�™ाद कोटि में आप �-िने जाते हैं।
सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,
हँस कर प्रण के �™िए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।

'ऐसा है तो मनुज-�™ोक, निश्चय, आदर पाए�-ा।
स्वर्�- किसी दिन भीख माँ�-ने मिट्टी पर आए�-ा।
किंतु भा�-्य है ब�™ी, कौन, किससे, कितना पाता है,
यह �™ेखा नर के �™�™ाट में ही देखा जाता है।

'क्षुद्र पात्र हो म�-्न कूप में जितना ज�™ �™ेता है,
उससे अधिक वारि सा�-र भी उसे नहीं देता है।
अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,
किस्मत भी चाहिए, नहीं केव�™ ऊँची अभि�™ाषा।'

कहा कर्ण ने, 'वृथा भा�-्य से आप डरे जाते हैं,
जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं।
विधि ने क्या था �™िखा भा�-्य में, खूब जानता हूँ मैं,
बाहों को, पर, कहीं भा�-्य से ब�™ी मानता हूँ मैं।

'महाराज, उद्यम से विधि का अंक उ�™ट जाता है,
किस्मत का पाशा पौरुष से हार प�™ट जाता है।
�"र उच्च अभि�™ाषाएँ तो मनुज मात्र का ब�™ हैं,
ज�-ा-ज�-ा कर हमें वही तो रखती निज चंच�™ हैं।

'आ�-े जिसकी नजर नहीं, वह भ�™ा कहाँ जाए�-ा?
अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाए�-ा?
अच्छा, अब उपचार छोड़, बो�™िए, आप क्या �™ें�-े,
सत्य मानिये, जो माँ�-ें�-ें आप, वही हम दें�-े।

'मही डो�™ती �"र डो�™ता नभ मे देव-नि�™य भी,
कभी-कभी डो�™ता समर में किंचित वीर-हृदय भी।
डो�™े मू�™ अच�™ पर्वत का, या डो�™े ध्रुवतारा,
सब डो�™ें पर नही डो�™ सकता है वचन हमारा।'

भ�™ी-भाँति कस कर दाता को, बो�™ा नीच भिखारी,
'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी।
ऐसा है �"दार्य, तभी तो कहता हर याचक है,
महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है।

'मैं सब कुछ पा �-या प्राप्त कर वचन आपके मुख से,
अब तो मैं कुछ �™िए बिना भी जा सकता हूँ सुख से।
क्योंकि माँ�-ना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,
�"र साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ।

'कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँ�-ूं�-ा,
मैं तो भ�™ा किसी विधि अपनी अभि�™ाषा त्या�-ूं�-ा।
किंतु आपकी कीर्ति-चाँदनी फीकी हो जाए�-ी,
निष्क�™ंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाए�-ी।

'है सुकर्म, क्या संकट मे डा�™ना मनस्वी नर को?
प्रण से डि�-ा आपको दूँ�-ा क्या उत्तर ज�- भर को?
सब कोसें�-ें मुझे कि मैने पुण्य मही का �™ूटा,
मेरे ही कारण अभं�- प्रण महाराज का टूटा।

'अतः विदा दें मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ।'
बो�™ उठा राधेय, 'आपको मैं अद्भुत पाता हूँ।
सुर हैं, या कि यक्ष हैं अथवा हरि के मायाचर हैं,
समझ नहीं पाता कि आप नर हैं या योनि इतर हैं।

'भ�™ा कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँ�-ें�-े,
जिसे नहीं पाकर, निराश हो, अभि�™ाषा त्या�-ें�-े?
�-ो, धरती, धन, धाम वस्तु जितनी चाहे दि�™वा दूँ,
इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढा दूँ।

'या यदि साथ �™िया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,
तो भी वचन तोड़कर हूँ�-ा नहीं विप्र का द्रोही।
च�™िए साथ च�™ूँ�-ा मैं साक�™्य आप का ढोते,
सारी आयु बिता दूँ�-ा चरणों को धोते-धोते।

'वचन माँ�- कर नहीं माँ�-ना दान बड़ा अद्भुत है,
कौन वस्तु है, जिसे न दे सकता राधा का सुत है?
विप्रदेव! मॅं�-ाइयै छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,
मरूं अयश कि मृत्यु, करूँ यदि एक बार भी 'नाहीं'।'

सहम �-या सुन शपथ कर्ण की, हृदय विप्र का डो�™ा,
नयन झुकाए हुए भिक्षु साहस समेट कर बो�™ा,
'धन की �™ेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,
�"र नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ।

'यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को ब�™ दें,
देना हो तो मुझे कृपा कर कवच �"र कुंड�™ दें।'
'कवच �"र कुंड�™!' विद्युत छू �-यी कर्ण के तन को;
पर, कुछ सोच रहस्य, कहा उसने �-ंभीर कर मन को।

'समझा, तो यह �"र न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं,
देने को आये प्रसन्न हो तप को नयी प्र�-ती हैं।
धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर �™ाया,
स्वर्�- भीख माँ�-ने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।

'क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं,
छिप कर आये आप, नहीं इससे पहचान सका मैं।
दीन विप्र ही समझ कहा-धन, धाम, धारा �™ेने को,
था क्या मेरे पास, अन्यथा, सुरपति को देने को?

'केव�™ �-न्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थू�™ मनुज क्या दे�-ा?
�"र व्योमवासी मिट्टी से दान भ�™ा क्या �™े�-ा?
फिर भी, देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे,
जो भी हो, पर इस सुयो�- को, हम क्यों अशुभ विचरें?

'अतः आपने जो माँ�-ा है दान वही मैं दूँ�-ा,
शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर ज�- में अयश न �™ूँ�-ा।
पर कहता हूँ, मुझे बना निस्त्राण छोड़ते हैं क्यों?
कवच �"र कुंड�™ �™े करके प्राण छोड़ते हैं क्यों?

'यह शायद, इस�™िए कि अर्जुन जिए, आप सुख �™ूटे,
व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझसे टकराकर टूटे।
उधर करें बहु भाँति पार्थ कि स्वयं कृष्ण रखवा�™ी,
�"र इधर मैं �™डू �™िये यह देह कवच से खा�™ी।

'तनिक सोचिये, वीरों का यह यो�-्य समर क्या हो�-ा?
इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या हो�-ा?
एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,
सुर को शोभे भ�™े, नीति यह नहीं शोभती नर को।

'यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है,
जहर पी�™ा मृ�-पति को उस पर पौरुष दिख�™ाना है।
यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है,
जय निश्चित हो जाय, तभी रिपु के सम्मुख होना है।

'देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के ब�™ से,
क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़कर छ�™ से?
हार-जीत क्या चीज? वीरता की पहचान समर है,
सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है।

'�"र पार्थ यदि बिना �™ड़े ही जय के �™िये विक�™ है,
तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सर�™ है।
कहिए उसे, मोम की मेरी एक मूर्ति बनवाए,
�"र काट कर उसे, ज�-त मे कर्णजयी कह�™ाए।

'जीत सके�-ा मुझे नहीं वह �"र किसी विधि रण में,
कर्ण-विजय की आश तड़प कर रह जाये�-ी मन में।
जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के ब�™ से,
मुझे छोड़ रक्षित जन्मा था कौन कवच-कुंड�™ में?

'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।
अच्छा किया कि आप मुझे समत�™ पर �™ाने आये,
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये।

'अब ना कहे�-ा ज�-त, कर्ण को ईश्वरीय भी ब�™ था,
जीता वह इस�™िए कि उसके पास कवच-कुंड�™ था।
महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहे�™ा?
किस आपत्ति-�-र्त में उसने मुझको नही धके�™ा?

'जन्मा जाने कहाँ, प�™ा, पद-द�™ित सूत के कु�™ में,
परिभव सहता रहा विफ�™ प्रोत्साहन हित व्याकु�™ मैं,
द्रोणदेव से हो निराश वन में भृ�-ुपति तक धाया
बड़ी भक्ति कि पर, बद�™े में शाप भयानक पाया।

'�"र दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जा�- में,
आया है बन विघ्न सामने आज विजय के म�- मे।
ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छ�™ना था?
हवन डा�™ते हुए यज्ञा मे मुझ को ही ज�™ना था?

'सबको मि�™ी स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,
नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ।
मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?
खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?

'�"र कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फ�™ है।
तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच �"र कुंड�™ है?
समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटि�™ है माया,
सब-कुछ पाकर भी मैने यह भा�-्य-दोष क्यों पाया?

'जिससे मि�™ता नहीं सिद्ध फ�™ मुझे किसी भी व्रत का,
उ�™्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सु�-त का।
�-ं�-ा में �™े जन्म, वारि �-ं�-ा का पी न सका मैं,
किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं।

'जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?
मुझे बना आ�-ार शूरता का, करुणा का, धृति का,
देवोपम �-ुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,
दिया भेज भू पर केव�™ बाधा�"ं से �™ड़ने को!

'फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,
एक नया संदेश विश्व के हित वह भी �™ाया है।
स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिख�™ाना है,
जीवन-जय के �™िये कहीं कुछ करतब दिख�™ाना है।

'वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,
नियति-भा�™ पर पुरुष पाँव निज ब�™ से धर सकता है।
वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कु�™ में,
बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथु�™ में।

'वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,
द�-ा धर्म दे �"र पुण्य चाहे ज्वा�™ा बरसाये।
पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से ट�™ सकता है,
ब�™ से अंधड़ को धके�™ वह आ�-े च�™ सकता है।

'वह करतब है यह कि युद्ध मे मारो �"र मरो तुम,
पर कुपंथ में कभी जीत के �™िये न पाँव धरो तुम।
वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जा�",
विजय-ति�™क के �™िए करों मे का�™िख पर, न �™�-ा�"।

'देवराज! छ�™, छद्म, स्वार्थ, कुछ भी न साथ �™ाया हूँ,
मैं केव�™ आदर्श, एक उनका बनने आया हूँ,
जिन्हें नही अव�™म्ब दूसरा, छोड़ बाहु के ब�™ को,
धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी �™ोभ से छ�™ को।

'मैं उनका आदर्श जिन्हें कु�™ का �-ौरव ताडे�-ा,
'नीचवंशजन्मा' कहकर जिनको ज�- धिक्कारे�-ा।
जो समाज के विषम वह्नि में चारों �"र ज�™ें�-े,
प�--प�- पर झे�™ते हुए बाधा निःसीम च�™ें�-े।

'मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खो�™ सकें�-े,
पूछे�-ा ज�-; किंतु, पिता का नाम न बो�™ सकें�-े।
जिनका निखि�™ विश्व में कोई कहीं न अपना हो�-ा,
मन में �™िए उमं�- जिन्हें चिर-का�™ क�™पना हो�-ा।

'मैं उनका आदर्श, किंतु, जो तनिक न घबरायें�-े,
निज चरित्र-ब�™ से समाज मे पद-विशिष्ट पायें�-े,
सिंहासन ही नहीं, स्वर्�- भी उन्हें देख नत हो�-ा,
धर्म हेतु धन-धाम �™ुटा देना जिनका व्रत हो�-ा।

'श्रम से नही विमुख हों�-े, जो दुख से नहीं डरें�-े,
सुख क �™िए पाप से जो नर कभी न सन्धि करें�-े,
कर्ण-धर्म हो�-ा धरती पर ब�™ि से नहीं मुकरना,
जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मारना।

'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी �"र सम्ब�™ का,
बड़ा भरोसा था, �™ेकिन, इस कवच �"र कुण्ड�™ का,
पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये �™ेता हूँ,
देवराज! �™ीजिए खुशी से महादान देता हूँ।

'यह �™ीजिए कर्ण का जीवन �"र जीत कुरूपति की,
कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की।
हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,
अंतिम मू�™्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का।

'जीवन देकर जय खरीदना, ज�- मे यही च�™न है,
विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है।
म�-र, प्राण रखकर प्रण अपना आज पा�™ता हूँ मैं,
पूर्णाहुति के �™िए विजय का हवन डा�™ता हूँ मैं।

'देवराज! जीवन में आ�-े �"र कीर्ति क्या �™ूँ�-ा?
इससे बढ़कर दान अनूपम भ�™ा किसे, क्या दूँ�-ा?
अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,
अर्जुन! तेरे �™िए कर्ण से विजय माँ�- �™ाया हूँ।'

'एक विनय है �"र, आप �™ौटें जब अमर भुवन को,
दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,
'उद्वे�™ित जिसके निमित्त पृथ्वीत�™ का जन-जन है,
कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है।

'दो वीरों ने किंतु, �™िया कर, आपस में निपटारा,
हुआ जयी राधेय �"र अर्जुन इस रण मे हारा।'
यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छी�™ क्षण भर में,
कवच �"र कुण्ड�™ उतार, धर दिया इंद्र के कर में।

चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विह�- बिचारे,
दिशा सन्न रह �-यी देख यह दृश्य भीति के मारे।
सह न सके आघात, सूर्य छिप �-ये सरक कर घन में,
'साधु-साधु!' की �-िरा मंद्र �-ूँजी �-ंभीर �-�-न में।

अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निरा�™ा,
देवराज का मुखमंड�™ पड़ �-या �-्�™ानि से का�™ा।
क्�™िन्न कवच को �™िए किसी चिंता में म�-े हुए-से।
ज्यों-के-त्यों रह �-ये इंद्र जड़ता में ठ�-े हुए-से।

'पाप हाथ से निक�™ मनुज के सिर पर जब छाता है,
तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,
अहंकारवश इंद्र सर�™ नर को छ�™ने आए थे,
नहीं त्या�- के माहतेज-सम्मुख ज�™ने आये थे।

म�-र, विशिख जो �™�-ा कर्ण की ब�™ि का आन हृदय में,
बहुत का�™ तक इंद्र मौन रह �-ये म�-्न विस्मय में।
झुका शीश आख़िर वे बो�™े, 'अब क्या बात कहूँ मैं?
करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?

'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,
पर सुरत्व को भू�™ निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,
देख �™िया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,
आज तु�™ा कर भी नीचे है मही, स्वर्�- है ऊपर।

'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हि�™ते हैं,
माँ�-ूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मि�™ते हैं।
दे पावन पदधू�™ि कर्ण! दूसरी न मेरी �-ति है,
पह�™े भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है

'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक हो�-ा,
दान कवच-कुण्ड�™ का - ऐसा हृदय-विदारक हो�-ा।
मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरे�-ा,
वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन �-िरे�-ा।

'तेरे माहतेज के आ�-े म�™िन हुआ जाता हूँ,
कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ।
आह! ख�™ी थी कभी नहीं मुझको यों �™घुता मेरी,
दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी।

'तृण-सा विवश डूबता, उ�-ता, बहता, उतराता हूँ,
शी�™-सिंधु की �-हराई का पता नहीं पाता हूँ।
घूम रही मन-ही-मन �™ेकिन, मि�™ता नहीं किनारा,
हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा।

'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छ�™ ही करने को,
जान-बूझ कर कवच �"र कुण्ड�™ तुझसे हरने को,
वह छ�™ हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिख�™ाऊं�-ा,
आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँ�-ा।

'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज ति�-्म अति तेरा,
काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा।
किन्तु, अभी तो तुझे देख मन �"र डरा जाता है,
हृदय सिमटता हुआ आप-ही-आप मरा जाता है।

'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्व�™ शै�™ अच�™-सा,
कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फ�™-सा।
त्रिभुवन में जिन अमित यो�-ियों का प्रकाश ज�-ता है,
उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको �™�-ता है।

'खड़े दीखते ज�-न्नियता पीछे तुझे �-�-न में,
बड़े प्रेम से �™िए तुझे ज्योतिर्मय आ�™िं�-न में।
दान, धर्म, अ�-णित व्रत-साधन, यो�-, यज्ञ, तप तेरे,
सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे।

'मही म�-्न हो तुझे अंक में �™ेकर इठ�™ाती है,
मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जत�™ाती है।
'इसने मेरे अमित म�™िन पुत्रों का दुख मेटा है,
सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है।'

'तू दानी, मैं कुटि�™ प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी,
तू देकर भी सुखी �"र मैं �™ेकर भी परितापी।
तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है,
इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है।

'देख न सकता अधिक �"र मैं कर्ण, रूप यह तेरा,
काट रहा है मुझे जा�-कर पाप भयानक मेरा।
तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही प�-ता हूँ,
उतना ही मैं �"र अधिक बर्बर-समान �™�-ता हूँ

'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो,
अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो।
म�-र विदा देने के पह�™े एक कृपा यह कर दो,
मुझ निष्ठुर से भी कोई �™े माँ�- सोच कर वर �™ो

कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर,
देवराज! अब क्या हो�-ा वरदान नया कुछ �™ेकर?
बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अच�™ हो,
वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्ड�™ हो

देवराज बो�™े कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़े�-ा,
निज रक्षा के �™िए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़े�-ा?
�"र धर्म को तू छोड़े�-ा भ�™ा पुत्र! किस भय से?
अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से

धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर �™ी है,
छ�™ से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है।
उसे दूर या कम करने की है मुझको अभि�™ाषा,
पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने दे�-ा तू यह आशा।

'तू माँ�-ें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है,
मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा ह�™्का कर �™ेना है।
�™े अमोघ यह अस्त्र, का�™ को भी यह खा सकता है,
इसका कोई वार किसी पर विफ�™ न जा सकता है।

'एक बार ही म�-र, काम तू इससे �™े पाये�-ा,
फिर यह तुरत �™ौट कर मेरे पास च�™ा जाये�-ा।
अतः वत्स! मत इसे च�™ाना कभी वृथा चंच�™ हो,
�™ेना काम तभी जब तुझको �"र न कोई ब�™ हो।

'दानवीर! जय हो, महिमा का �-ान सभी जन �-ाये,
देव �"र नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये।'
दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को,
व्रत का अंतिम मू�™्य चुका कर �-या कर्ण निज घर को।


पंचम सर्�-

आ �-या का�™ विकरा�™ शान्ति के क्षय का,
निर्दिष्ट �™�-्न धरती पर खंड-प्र�™य का ।
हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
क�™ ही हो�-ा आरम्भ समर अति भारी ।

क�™ जैसे ही पह�™ी मरीचि फूटे�-ी,
रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटे�-ी ।
संहार मचे�-ा, तिमिर घोर छाये�-ा,
सारा समाज दृ�-वंचित हो जाये�-ा ।

जन-जन स्वजनों के �™िए कुटि�™ यम हो�-ा,
परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम हो�-ा ।
क�™ से भाई, भाई के प्राण हरें�-े,
नर ही नर के शोणित में स्नान करें�-े ।

सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
कुंती व्याकु�™ हो उठी सोच कुछ मन में ।
'हे राम! नहीं क्या यह संयो�- हटे�-ा?
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटे�-ा?

'एक ही �-ोद के �™ा�™, कोख के भाई,
सत्य ही, �™ड़ें�-े हो, दो �"र �™ड़ाई?
सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरे�-ा,
अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरे�-ा?

दो में जिसका उर फटे, फटूँ�-ी मैं ही,
जिसकी भी �-र्दन कटे, कटूँ�-ी मैं ही,
पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,
बरसें�-ें किस पर मुझे छोड़ अं�-ारे?

'भ�-वान! सुने�-ा कथा कौन यह मेरी?
समझे�-ा ज�- में व्यथा कौन यह मेरी?
हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,
है कौन, हरे�-ा जो मेरी पीड़ा को?

�-ांधारी महिमामयी, भीष्म �-ुरुजन हैं,
धृतराष्ट्र खिन्न, ज�- से हो रहे विमन हैं ।
तब भी उनसे कहूँ, करें�-े क्या वे?
मेरी मणि मेरे हाथ धरें�-े क्या वे?

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह म�™िन कहानी,
�-�™ कर रह जाए�-ा वह भावुक ज्ञानी ।
तो च�™ूँ कर्ण से हीं मि�™कर बात करूँ मैं
सामने उसी के अंतर खो�™ धरून मैं ।

�™ेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँ�-ी?
किस तरह उसे अपना मुख दिख�™ाउं�-ी?
माँ�-ता विक�™ हो वस्तु आज जो मन है
बीता विरुद्ध उसके सम�-्र जीवन है ।

क्या समाधान हो�-ा दुष्कृति के कर्म का?
उत्तर दूं�-ी क्या, निज आचरण विषम का?
किस तरह कहूँ�-ी-पुत्र! �-ोद में आ तू,
इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

चिंताकु�™ उ�™झी हुई व्यथा में, मन से,
बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से ।
सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,
सितकेशी, संभ्रममयी च�™ी सकुचा कर ।

उड़ती वितर्क-धा�-े पर, चं�--सरीखी,
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी ।
आशा-अभि�™ाषा-भारी, डरी, भरमायी,
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी ।

दिनमणि पश्चिम की �"र क्षितिज के ऊपर,
थे घट उंड़े�™ते खड़े कनक के भू पर ।
�™ा�™िमा बहा अ�--अ�- को नह�™ाते थे,
खुद भी �™ज्जा से �™ा�™ हुए जाते थे ।

राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान �™�-ाये,
था खड़ा विम�™ ज�™ में, यु�- बाहु उठाये ।
तन में रवि का अप्रतिम तेज ज�-ता था,
दीपक �™�™ाट अपरार्क-सदृश �™�-ता था ।

मानो, यु�--स्वर्णिम-शिखर-मू�™ में आकर,
हो बैठ �-या सचमुच ही, सिमट विभाकर ।
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को �™े,
हो खड़ा तीर पर �-रुड़ पंख निज खो�™े ।

या दो अर्चियाँ विशा�™ पुनीत अन�™ की,
हों सजा रही आरती विभा-मण्ड�™ की,
अथवा अ�-ाध कंचन में कहीं नहा कर,
मैनाक-शै�™ हो खड़ा बाहु फै�™ा कर ।

सुत की शोभा को देख मोद में फू�™ी,
कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भू�™ी ।
भर कर ममता-पय से निष्प�™क नयन को,
वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को ।

आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खो�™ा,
कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बो�™ा,
"पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ,
राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ

"हैं आप कौन ? किस�™िए यहाँ आयी हैं ?
मेरे निमित्त आदेश कौन �™ायी हैं ?
यह कुरूक्षेत्र की भूमि, युद्ध का स्थ�™ है,
अस्तमित हुआ चाहता विभामण्ड�™ है।

"सूना, �"घट यह घाट, महा भयकारी,
उस पर भी प्रवया आप अके�™ी नारी।
हैं कौन ? देवि ! कहिये, क्या काम करूँ मैं ?
क्या भक्ति-भेंट चरणों पर आन धरूँ मैं ?

सुन �-िरा �-ूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा,
भीतर का क्�™ेश अपार अश्रु बन फूटा।
वि�-�™ित हो उसने कहा काँपते स्वर से,
"रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारूण शर से।

"राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है,
जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है।
तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है,
अर्जुन-समान कुरूकु�™ का ही अंशी है।

"जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया,
तू उसी तरह था प्रथम कुक्षि में आया।
पा तुझे धन्य थी हुई �-ोद यह मेरी,
मैं ही अभा�-िनी पृथा जननि हूँ तेरी।

"पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था,
अनमो�™ �™ा�™ मैंने असमय पाया था।
अतएव, हाय ! अपने दुधमुँहे तनय से,
भा�-ना पड़ा मुझको समाज के भय से

"बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी,
अब�™ा होती, सममुच, योषिता कुमारी।
है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,
सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।

"उस पर भी बा�™ अबोध, का�™ बचपन का,
सूझा न शोध मुझको कुछ �"र पतन का।
मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,
धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।

"संयो�-, सूतपत्नी ने तुझको पा�™ा,
उन दयामयी पर तनिक न मुझे कसा�™ा।
�™े च�™, मैं उनके दोनों पाँव धरूँ�-ी,
अ�-्रजा मान कर सादर अंक भरूँ�-ी।

"पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,
आदेश नहीं, प्रार्थना साथ �™ायी हूँ।
क�™ कुरूक्षेत्र में जो सं�-्राम छिड़े�-ा,
क्षत्रिय-समाज पर क�™ जो प्र�™य घिरे�-ा।

"उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो �™ड़ तू,
मत उन्हें मार, या उनके हाथों मत तू।
मेरे ही सुत मेरे सुत को ह मारें;
हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।

"यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जाये�-ा,
अब �"र न मुझसे मूक रहा जाये�-ा।
जो छिपकर थी अबतक कुरेदती मन को,
बत�™ा दूँ�-ी वह व्यथा सम�-्र भुवन को।

भा�-ी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय से,
फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से,
उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँ�-ी,
डर चुकी बहुत, अब �"र न अधिक डरूँ�-ी।

"थी चाह पंक मन को प्रक्षा�™ित कर �™ूँ,
मरने के पह�™े तुँझे अंक में भर �™ूँ।
वह समय आज रण के मिस से आया है,
अवसर मैंने भी क्या अद्भुत पाया है !

बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही,
�™ेकिन, विरंचि निक�™ा कितना निर्मोही !
तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने,
यह �-ोपन जन्म-रहस्य तुझे बत�™ाने।

"पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,
यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,
अब दौड़ वत्स ! �-ोदी में वापस आ तू,
आ �-या निकट विध्वंस, न देर �™�-ा तू।

"जा भू�™ द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,
रे कर्ण ! समर में अब मारे�-ा किसको ?
पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही है
अ�-्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है।

"नेता बन, कर में सूत्र समर का �™े तू,
अनुजों पर छत्र विशा�™ बाहु का दे तू,
सं�-्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।
जयमुकुट पहन, फिर भो�- सम्पदा सारी।

"यह नहीं किसी भी छ�™ का आयोजन है,
रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।
विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ ?
किसको प्रमाण के �™िए यहाँ बु�™वाऊँ ?

"वह देख, पश्चिमी तट के पास �-�-न में,
देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,
जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भूत है,
तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।"

रूक पृथा पोंछने �™�-ी अश्रु अंच�™ से,
इतने में आयी �-िरा �-�-न-मण्ड�™ से,
"कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,
माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।"

यह कह दिनेश चट उतर �-ये अम्बर से,
हो �-ये तिरोहित मि�™कर किसी �™हर से।
मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,
वे च�™े �-ये दायित्व छोड़ घबराकर।

डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,
कुन्ती के पद की धू�™ शीश पर धरके।
राधेय बो�™ने �™�-ा बड़े ही दुख से,
"तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?

"क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,
माता के तन का म�™, अपूत है वह तो।
तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,
अर्जुन की माता, कुरूकु�™ की रानी हो।

"मैं नाम-�-ोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ
सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।
ठकुरानी ! क्या �™ेकर तुम मुझे करो�-ी ?
म�™ को पवित्र �-ोदी में कहाँ धरो�-ी ?

"है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ा�"
मन छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसा�"।
हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,
किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।

"सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,
धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;
माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकु�™ा कर,
पय-पान कराती उर से �™�-ा कर।

"मुख चूम जन्म की क्�™ान्ति हरण करती है,
दृ�- से निहार अं�- में अमृत भरती है।
पर, मुझे अंक में उठा न �™े पायीं तुम,
पय का पह�™ा आहार न दे पायीं तुम।

"उ�™्टे, मुझको असहाय छोड़ कर ज�™ में,
तुम �™ौट �-यी इज़्ज़त के बड़े मह�™ में।
मैं बचा अ�-र तो अपने आयुर्ब�™ से,
रक्षा किसने की मेरी का�™-कव�™ से ?

"क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?
जीवन के बद�™े साफ मृत्यु ही दी थी।
पर, तुमने जब पत्थर का किया क�™ेजा,
अस�™ी माता के पास भा�-्य ने भेजा।

"अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,
आख़िरी दाँव पर �™�-ा हुआ जीवन है,
तब प्यार बाँध करके अंच�™ के पट में,
आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में।

"अपना खोया संसार न तुम पा�"�-ी,
राधा माँ का अधिकार न तुम पा�"�-ी।
छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,
पर, कभी बात यह भी मन में �™ायी हो ?

"उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,
तु ठकुरानी हो, वह केव�™ नारी है।
तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,
उसने अनाथ को हृदय �™�-ा कर सेंका।

"उमड़ी न स्नेह की उज्जव�™ धार हृदय से,
तुम सुख �-यीं मुझको पाते ही भय से।
पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,
कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।

"तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,
उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।
अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?
माता कह उसके बद�™ें तुम्हें पुकारूँ ?

"अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,
ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ �™िया निज सुख है।
जब भी पिछे की �"र दृष्टि जाती है,
चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।

"आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,
या असमय मेरा जन्म न शी�™-विहित था !
पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,
मैं ज�™ता ही आया सम�-्र जीवन में,

"अज्ञातशी�™कु�™ता का विघ्न न माना,
भुजब�™ को मैंने सदा भा�-्य कर जाना।
बाधा�"ं के ऊपर चढ़ धूम मचा कर,
पाया सब-कुछ मैंने पौरूष को पाकर।

"जन्मा �™ेकर अभिशाप, हुआ वरदानी,
आया बनकर कं�-ा�™, कहाया दानी।
दे दिये मो�™ जो भी जीवन ने माँ�-े,
सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आ�-े।

"पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ?
मुझ वीर पुत्र को मि�™ी भीरू क्यों माता ?
जो जमकर पत्थर हुई जाति के भय से,
सम्बन्ध तोड़ भ�-ी दुधमुँहे तनय से।

"मर �-यी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही,
जीना चाहा बन कठिन, क्रुर, निर्मोही।
क्या कहूँ देवि ! मैं तो ठहरा अनचाहा,
पर तुमने माँ का खूब चरित्र निबाहा।

"था कौन �™ोभ, थे अरमान हृदय में,
देखा तुमने जिनका अवरोध तनय में ?
शायद यह छोटी बात-राजसुख पा�",
वर किसी भूप को तुम रानी कह�™ा�"।

"सम्मान मि�™े, यश बढ़े वधूमण्ड�™ में,
कह�™ा�" साध्वी, सती वाम भूत�™ में।
पा�" सुत भी ब�™वान, पवित्र, प्रतापी,
मुझ सा अघजन्मा नहीं, म�™िन, परितापी।

"सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर,
कुछ भी न �-ँवाया तुमने मुझे �-ँवा कर।
पर अम्बर पर जिनका प्रदीप ज�™ता है,
जिनके अधीन संसार निखि�™ च�™ता है

"उनकी पोथी में भी कुछ �™ेखा हो�-ा,
कुछ कृत्य उन्होंने भी तो देखा हो�-ा।
धारा पर सद्यःजात पुत्र का बहना,
माँ का हो वज्र-कठोर दृश्य वह सहना।

"फिर उसका होना म�-्न अनेक सुखों में,
जातक असं�- का ज�™ना अमित दुखों में।
हम दोनों जब मर कर वापस जायें�-े,
ये सभी दृश्य फिर से सम्मुख आयें�-े।

"ज�- की आँखों से अपना भेद छिपाकर,
नर वृथा तृप्त होता मन को समझाकर-
अब रहा न कोई विवर शेष जीवन में,
हम भ�™ी-भाँति रक्षित हैं पटावरण में !

"पर, हँसते कहीं अदृश्य ज�-त् के स्वामी,
देखते सभी कुछ तब भी अन्तर्यामी।
सबको सहेज कर नियति कहीं धरती है,
सब-कुछ अदृश्य पट पर अंकित करती है।

"यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जव�™ हो,
का�™िमा �™�-ी हो, उसमें कोई म�™ हो,
तो रह जाता क्या मू�™्य हमारी जय का,
ज�- में संचित क�™ुषित समृद्धि-समुदय का ?

"पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जा�-े,
तुम देख नहीं पायीं जीवन के आ�-े।
देखा न दीन, कातर बेटे के मुख को,
देखा केव�™ अपने क्षण-भं�-ुर सुख को।

"विधि का पह�™ा वरदान मि�™ा जब तुमको,
�-ोदी में नन्हाँ दान मि�™ा जब तुमको,
क्यो नहीं वीर-माता बन आ�-ें आयीं ?
सबके समक्ष निर्भय होकर चि�™्�™ायीं ?

"सुन �™ो, समाज के प्रमुख धर्म-ध्वज-धारी,
सुतवती हो �-यी मैं अनब्याही नारी।
अब चाहो तो रहने दो मुझे भवन में
या जातिच्युत कर मुझे भेज दो वन में।

"पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँ�-ी,
मातृत्व-धर्म से मुख न कभी मोडूँ�-ी।
यह बड़े दिव्य उन्मुक्त प्रेम का फ�™ है,
जैसा भी हो, बेटा माँ का सम्ब�™ है।’

"सोचो, ज�- होकर कुपित दण्ड क्या देता,
कुत्सा, क�™ंक के सिवा �"र क्या �™ेता ?
उड़ जाती रज-सी �-्�™ानि वायु में खु�™ कर,
तुम हो जातीं परिपूत अन�™ में घु�™ कर।

"शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर,
शायद, घिरते दुख के करा�™ घन तुम पर।
शायद, वियुक्त होना पड़ता परिजन से,
शायद, च�™ देना पड़ता तुम्हें भवन से।

"पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम,
ज�- के समक्ष निर्भिक खड़ी रहतीं तुम।
पी सुधा जहर को देख नहीं घबरातीं,
था किया प्रेम तो बढ़ कर मो�™ चुकातीं।

"भो�-तीं राजसुख रह कर नहीं मह�™ में,
पा�™तीं खड़ी हो मुझे कहीं तरू-त�™ में।
�™ूटतीं ज�-त् में देवि ! कीर्ति तुम भारी,
सत्य ही, कहातीं सती सुचरिता नारी।

"मैं बड़े �-र्व से च�™ता शीश उठाये,
मन को समेट कर मन में नहीं चुराये।
पाता न वस्तु क्या कर्ण पुरूष अवतारी,
यदि उसे मि�™ी होती शुचि �-ोद तुम्हारी ?

"पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है,
�-त पर वि�™ाप करना जीवन खोना है।
जो छूट चुका, कैसे उसको पाऊँ�-ा ?
�™ौटूँ�-ा कितनी दूर ? कहाँ जाऊँ�-ा ?

"छीना था जो सौभा�-्य निदारूण होकर,
देने आयी हो उसे आज तुम रोकर।
�-ं�-ा का ज�™ हो चुका, परन्तु, �-र�™ है
�™ेना-देना उसका अब, नहीं सर�™ है।

"खो�™ा न �-ूढ़ जो भेद कभी जीवन में,
क्यों उसे खो�™ती हो अब चौथेपन में ?
आवरण पड़ा ही सब कुछ पर रहने दो,
बाकी परिभव भी मुझको ही सहने दो।

"पय से वंचित, �-ोदी से निष्कासित कर,
परिवार, �-ोत्र, कु�™ सबसे निर्वासित कर,
फेंका तुमने मुझ भा�-्यहीन को जैसे,
रहने तो त्यक्त, विषण्ण आज भी वैसे।

"है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का,
मैं नहीं वंश में फिर वापस जाने का।
दी बिता आयु सारी कु�™हीन कहा कर,
क्या पाऊँ�-ा अब उसे आज अपना कर ?

"यद्यपि जीवन की कथा क�™ंकमयी है,
मेरे समीप �™ेकिन, वह नहीं नयी है
जो कुछ तुमने है कहा बड़े ही दुख से,
सुन उसे चुका हूँ मैं केशव के मुख से।

"जानें, सहसा तुम सबने क्या पाया है,
जो मुझ पर इतना प्रेम उमड़ आया है।
अब तक न स्नेह से कभी किसी ने हेरा,
सौभा�-्य किन्तु, ज�- पड़ा अचानक मेरा।

"मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है,
असमय में जन्मी हुई प्रीति यह क्या है।
जोड़ने नहीं बिछुड़े वियुक्त कु�™जन से,
फोड़ने मुझे आयी हो दुर्योधन से।

"सिर पर आकर जब हुआ उपस्थित रण है,
हि�™ उठा सोच परिणाम तुम्हारा मन है।
अंक मे न तुम मुझको भरने आयी हो,
कुरूपति को कुछ दुर्ब�™ करने आयी हो।

"अन्यथा, स्नेह की वे�-मयी यह धारा,
तट को मरोड़, झकझोर, तोड़ कर कारा,
भुज बढ़ा खींचने मुझे न क्यों आयी थी ?
पह�™े क्यों यह वरदान नहीं �™ायी थी ?

"केशव पर चिन्ता डा�™, अभय हो रहना,
इस पार्थ भा�-्यशा�™ी का भी क्या कहना !
�™े �-ये माँ�- कर, जनक कवच-कुण्ड�™ को,
जननी कुण्ठित करने आयीं रिपु-ब�™ को।

"�™ेकिन, यह हो�-ा नहीं, देवि ! तुम जा�",
जैसे भी हो, सुत का सौभा�-्य मना�",
दें छोड़़ भ�™े ही कभी कृष्ण अर्जुन को,
मैं नहीं छोड़ने वा�™ा दुर्योधन को।

"कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है,
आसान न होना उससे कभी उऋण है।
छ�™ किया अ�-र, तो क्या ज�- मंे यश �™ूँ�-ा ?
प्राण ही नहीं, तो उसे �"र क्या दूँ�-ा ?

"हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ,
मैं चढ़ा हुआ नैवेद्य देवता पर हूँ।
अर्पित प्रसून के �™िए न यों �™�™चा�",
पूजा की वेदी पर मत हाथ बढ़ा�"।"

राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के,
आँखों से झरने �™�-े अश्रु बह-बह के।
कुन्ती के मुख में वृथा जीभ हि�™ती थी,
कहने को कोई बात नहीं मि�™ती थी।

अम्बर पर मोती-�-ुथे चिकुर फै�™ा कर,
अंजन उँड़े�™ सारे ज�- को नह�™ा कर,
साड़ी में टाँकें हुए अनन्त सितारे,
थी घूम रही तिमिरांच�™ निशा पसारे।

थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अ�--ज�- था,
कुंजों में अब बो�™ता न कोई ख�- था,
झि�™्�™ी अपना स्वर कभी-कभी भरती थी,
ज�™ में जब-तब मछ�™ी छप-छप करती थी।

इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे,
थे खड़े शि�™ावत् मूक, भा�-्य के मारे।
था सिसक रहा राधेय सोच यह मन में,
क्यों उब�™ पड़ा असमय विष कुटि�™ वचन में ?

क्या कहे �"र, यह सोच नहीं पाती थी,
कुन्ती कुत्सा से दीन मरी जाती थी।
आखिर समेट निज मन को कहा पृथा ने,
"आयी न वेदी पर का मैं फू�™ उठाने।

"पर के प्रसून को नहीं, नहीं पर-धन को,
थी खोज रही मैं तो अपने ही तन को।
पर, समझ �-यी, वह मुझको नहीं मि�™े�-ा,
बिछुड़ी डा�™ी पर कुसुम न आन खि�™े�-ा।

"तब जाती हूँ क्या �"र सकूँ�-ी कर मैं ?
दूँ�-ी आ�-े क्या भ�™ा �"र उत्तर मैं ?
जो किया दोष जीवन भर दारूण रहकर,
मेटूँ�-ी क्षण में उसे बात क्या कहकर ?

बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं,
मानवी-रूप में विकट साँपिनी हूँ मैं।
मुझ-सी प्रचण्ड अघमयी, कुटि�™, हत्यारी,
धरती पर हो�-ी कौन दूसरी नारी ?

"तब भी मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे,
मेरा मन पाता वही रहा है मुझसे।
यश �"ढ़ ज�-त् को तो छ�™ती आयी हूँ
पर, सदा हृदय-त�™ में ज�™ती आयी हूँ।

"अब भी मन पर है खिंची अ�-्नि की रेखा,
त्या�-ते समय मैंने तुझको जब देखा,
पेटिका-बीच मैं डा�™ रही थी तुझको
टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।

"वह टुकुर-टुकुर कातर अव�™ोकन तेरा,
�"’ शि�™ाभूत सर्पिणी-सदृश मन मेरा,
ये दोनों ही सा�™ते रहे हैं मुझको,
रे कर्ण ! सुनाऊँ व्यथा कहाँ तक तुझको ?

"�™ज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है,
निर्घोष सत्य का कब कोम�™ होता है !
धिक्कार नहीं तो मैं क्या �"र सुनुँ�-ी ?
काँटे बोये थे, कैसे कुसुम चुनूँ�-ी ?

"धिक्कार, �-्�™ानि, कुत्सा पछतावे को ही,
�™ेकर तो बीता है जीवन निर्मोही।
थे अमीत बार अरमान हृदय में जा�-े,
धर दूँ उघार अन्तर मैं तेरे आ�-े।

"पर कदम उठा पायी न �-्�™ानि में भरकर,
सामने न हो पायी कुत्सा से डरकर।
�™ेकिन, जब कुरूकु�™ पर विनाश छाया है,
आखिरी घड़ी �™े प्र�™य निकट आया है।

"तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी,
आयी मैं तेरे पास भा�-्य की मारी।
सोचा कि आज भी अ�-र चूक जाऊँ�-ी,
भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँ�-ी।

"इस�™िए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर,
सब कुछ सहने के �™िए समुद्यत होकर,
आयी थी मैं �-ोपन रहस्य बत�™ाने,
सोदर-वध के पातक से तुझे बचाने।

"सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है,
तेरे तन में किस कु�™ का दिव्य �™हू है।
अब तू स्वतन्त्र है, जो चाहे वह कर तू,
जा भू�™ द्वेष अथवा अनुजों से �™ड़ तू।

"कढ़ �-यी क�™क जो कसक रही थी मन में,
हाँ, एक �™�™क रह �-यी छिन्न जीवन में,
थे मि�™े �™ा�™ छह-छह पर, वाम विधाता,
रह �-यी सदा पाँच ही सुतों की माता।

"अभि�™ाष �™िये तो बहुत बड़ी आयी थी,
पर, आस नहीं अपने ब�™ की �™ायी थी।
था एक भरोसा यही कि तू दानी है,
अपनी अमोघ करूणा का अभिमानी है।

"थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निरा�™ी,
�™ौटता न कोई कभी द्वार से खा�™ी।
पर, मैं अभा�-िनी ही अंच�™ फै�™ा कर,
जा रही रिक्त, बेटे से भीख न पाकर।

"फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,
संसार किसी दिन तुझे पुत्र ! पहचाने।
अब आ, क्षण भर मैं तुझे अंक में भर �™ूँ,
आखिरी बार तेरा आ�™िं�-न कर �™ूँ।

"ममता जमकर हो �-यी शि�™ा जो मन में,
जो क्षरी फूट कर सूख �-या था तन में,
वह �™हर रहा फिर उर में आज उमड़ कर,
वह रहा हृदय के कू�™-किनारे भर कर।

"कुरूकु�™ की रानी नहीं, कुमारी नारी-
वह दीन, हीन, असहाय, �-्�™ानि की मारी !
सिर उठा आज प्राणों में झाँक रही है,
तुझ पर ममता के चुम्बन में आँक रही है।
"इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण क�™ी को,
मुझमें भुज खो�™े हुए द�-्ध रमणी को,
छाती से सुत को �™�-ा तनिक रोने दे,
जीवन में पह�™ी बार धन्य होने दे।"

माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ �™�-ाया,
हो उठी कण्टकित पु�™क कर्ण की काया।
संजीवन-सी छू �-यी चीज कुछ तन में,
बह च�™ा स्नि�-्ध प्रस्वण कहीं से मन में।


पह�™ी वर्षा में मही भीं�-ती जैसे,
भीं�-ता रहा कुछ का�™ कर्ण भी वैसे।
फिर कण्ठ छोड़ बो�™ा चरणों पर आकर,
"मैं धन्य हुआ बिछुड़ी �-ोदी को पाकर।

पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर �™ायीं,
माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।
अतएव, न्यास अंच�™ का �™े ने सकूँ�-ा,
पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँ�-ा।

"की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभि�™ाषा,
जाने दूँ कैसे �™ेकर तुम्हें निराशा ?
�™ेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्या�-ो,
बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँ�-ो।

‘केव�™ निमित्त सं�-र का दुर्योधन है,
सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।
छीनो सुयो�- मत, मुझे अंक में �™ेकर,
यश, मुकुट, मान, कु�™, जाति, प्रतिष्ठा देकर।

"विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,
बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।
कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँ�-ा,
अप्रतिम वीर वसुधा पर कह�™ाऊँ�-ा।

"आ �-यी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,
रण में खु�™कर मारने �"र मरने की।
इस समय नहीं मुझमें शैथि�™्य भरो तुम,
जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।

"अर्जुन से �™ड़ना छोड़ कीर्ति क्या �™ूँ�-ा ?
क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँ�-ा ?
मेरा चरित्र फिर कौन समझ पाये�-ा ?
सारा जीवन ही उ�™ट-प�™ट जाये�-ा।

"तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,
पुत्र ही रहे�-ा सदा ज�-त् में दाता ?
दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ �™े�-ी,
पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ दे�-ी ?

"मैं एक कर्ण अतएव, माँ�- �™ेता हूँ,
बद�™े में तुमको चार कर्ण देता हूँ।
छोडूँ�-ा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,
तोड़ूँ�-ा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?

"पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँ�-ा,
पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँ�-ा।
अब जा�" हर्षित-हृदय सोच यह मन में,
पा�™ूँ�-ा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।"

कुन्ती बो�™ी, "रे हठी, दिया क्या तू ने ?
निज को �™ेकर �™े नहीं किया तू ने ?
बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,
रह �-या वाम का, पर, वाम ही विधाता।

"पाकर न एक को, �"र एक को खोकर,
मैं च�™ी चार पुत्रों की माता होकर।"
कह उठा कर्ण, "छह �"र चार को भू�™ो,
माता, यह निश्चय मान मोद में फू�™ो।

"जीते जी भी यह समर झे�™ दुख भारी,
�™ेकिन हो�-ी माँ ! अन्तिम विजय तुम्हारी।
रण में कट मर कर जो भी हानि सहें�-े,
पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहें�-े।

"कुरूपति न जीत कर निक�™ा अ�-र समर से,
या मि�™ी वीर�-ति मुझे पार्थ के कर से,
तुम इसी तरह �-ोदी की धनी रहो�-ी,
पुत्रिणी पाँच पुत्रों की बनी रहो�-ी।

"पर, कहीं का�™ का कोप पार्थ पर बीता,
वह मरा �"र दुर्योधन ने रण जीता,
मैं एक खे�™ फिर ज�- को दिख�™ाऊँ�-ा,
जय छोड़ तुम्हारे पास च�™ा आऊँ�-ा।

"ज�- में जो भी निर्द�™ित, प्रताड़ित जन हैं,
जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,
यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं
विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।

"सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है,
पर, केशव जिनके साथ, उन्हें क्या दुख है ?
उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूँ�-ा ?
है कौन त्रास, केव�™ मैं जिसे हरूँ�-ा ?

"हाँ अ�-र पाण्डवों की न च�™ी इस रण में,
वे हुए हतप्रभ किसी तरह जीवन में,
राधेय न कुरूपति का सह-जेता हो�-ा,
वह पुनः निःस्व द�™ितों का नेता हो�-ा।

"है अभी उदय का �™�-्न, दृश्य सुन्दर है,
सब �"र पाण्डु-पुत्रों की कीर्ति प्रखर है।
अनुकू�™ ज्योति की घड़ी न मेरी हो�-ी,
मैं आऊँ�-ा जब रात अन्धेरी हो�-ी।

"यश, मान, प्रतिष्ठा, मुकुट नहीं �™ेने को,
आऊँ�-ा कु�™ को अभयदान देने को।
परिभव, प्रदाह, भ्रम, भय हरने आऊँ�-ा,
दुख में अनुजों को भुज भरने आऊँ�-ा।

"भीषण विपत्ति में उन्हें जननि ! अपनाकर,
बाँटने दुःख आऊँ�-ा हृदय �™�-ाकर।
तम में नवीन आभा भरने आऊँ�-ा,
किस्मत को फिर ताजा करने आऊँ�-ा।

"पर नहीं, कृष्ण के कर की छाँह जहाँ है,
रक्षिका स्वयं अच्युत की बाँह जहाँ है,
उस भा�-्यवान का भा�-्य क्षार क्यों हो�-ा ?
सामने किसी दिन अन्धकार क्यों हो�-ा ?

"मैं देख रहा हूँ कुरूक्षेत्र के रण को,
नाचते हुए, मनुजो पर, महामरण को।
शोणित से सारी मही, क्�™िन्न, �™थपथ है,
जा रहा किन्तु, निर्बाध पार्थ का रथ है।

"हैं काट रहे हरि आप तिमिर की कारा,
अर्जुन के हित बह रही उ�™ट कर धारा।
शत पाश व्यर्थ रिपु का द�™ फै�™ाता है,
वह जा�™ तोड़ कर हर बार निक�™ जाता है।

"मैं देख रहा हूँ जननि ! कि क�™ क्या हो�-ा,
इस महासमर का अन्तिम फ�™ क्या हो�-ा ?
�™ेकिन, तब भी मन तनिक न घबराता है,
उत्साह �"र दु�-ुना बढ़ता जाता है।

"बज चुका का�™ का पटह, भयानक क्षण है,
दे रहा निमन्त्रण सबको महामरण है।
छाती के पूरे पुरूष प्र�™य झे�™ें�-े,
झंझा की उ�™झी �™टें खींच खे�™ें�-े।

"कुछ भी न बचे�-ा शेष अन्त में जाकर,
विजयी हो�-ा सन्तुष्ट तत्व क्या पाकर ?
कौरव वि�™ीन जिस पथ पर हो जायें�-े,
पाण्डव क्या उससे भिन्न राह पायें�-े ?

"है एक पन्थ कोई जीत या हारे,
खुद मरे, या कि, बढ़कर दुश्मन को मारे।
एक ही देश दोनों को जाना हो�-ा,
बचने का कोई नहीं बहाना हो�-ा।

"निस्सार द्रोह की क्रिया, व्यर्थ यह रण है,
खोख�™ा हमारा �"र पार्थ का प्रण है।
फिर भी जानें किस�™िए न हम रूकते हैं
चाहता जिधर को का�™, उधर को झुकतें हैं।

"जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी �-ति है,
कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है।
बहती प्रचण्डता से सबको अपनाकर,
सहसा खो जाती महासिन्धु को पाकर।

"फिर �™हर, धार, बुद्बुद् की नहीं निशानी,
सबकी रह जाती केव�™ एक कहानी।
सब मि�™ हो जाते वि�™य एक ही ज�™ में,
मूर्तियाँ पिघ�™ मि�™ जातीं धातु तर�™ में।

"सो इसी पुण्य-भू कुरूक्षेत्र में क�™ से,
�™हरें हो एकाकार मि�™ें�-ी ज�™ से।
मूर्तियाँ खूब आपस में टकरायें�-ी,
तार�™्य-बीच फिर �-�™कर खो जायें�-ी।

"आपस में हों हम खरे याकि हों खोटे,
पर, का�™ ब�™ी के �™िए सभी हैं छोटे,
छोटे होकर क�™ से सब साथ मरें�-े,
शत्रुता न जानें कहाँ समेट धरें�-े ?

"�™ेकिन, चिन्ता यह वृथा, बात जाने दो,
जैसा भी हो, क�™ क�™ का प्रभाव आने दो
दीखती किसी भी तरफ न उजिया�™ी है,
सत्य ही, आज की रात बड़ी का�™ी है।

"चन्द्रमा-सूर्य तम में जब छिप जाते हैं,
किरणों के अन्वेषी जब अकु�™ाते हैं,
तब धूमकेतु, बस, इसी तरह आता है,
रोशनी जरा मरघट में फै�™ाता है।"

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर,
दो बिन्दू अश्रु के �-िर दृ�-ों से चूकर।
बेटे का मस्तक सूँघ, बड़े ही दुख से,
कुन्ती �™ौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।

षष्ठ सर्�-

नरता कहते हैं जिसे, सत्तव
क्या वह केव�™ �™ड़ने में है ?
पौरूष क्या केव�™ उठा खड्�-
मारने �"र मरने में है ?
तब उस �-ुण को क्या कहें
मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ?
�™ेकिन, तक भी मारता नहीं,
वह स्वंय विश्व-हित मरता है।

है वन्दनीय नर कौन ? विजय-हित
जो करता है प्राण हरण ?
या सबकी जान बचाने को
देता है जो अपना जीवन ?
चुनता आया जय-कम�™ आज तक
विजयी सदा कृपाणों से,
पर, आह निक�™ती ही आयी
हर बार मनुज के प्राणों से।

आकु�™ अन्तर की आह मनुज की
इस चिन्ता से भरी हुई,
इस तरह रहे�-ी मानवता
कब तक मनुष्य से डरी हुई ?
पाशविक वे�- की �™हर �™हू में
कब तक धूम मचाये�-ी ?
कब तक मनुष्यता पशुता के
आ�-े यों झुकती जाये�-ी ?

यह ज़हर ने छोड़े�-ा उभार ?
अं�-ार न क्या बूझ पायें�-े ?
हम इसी तरह क्या हाय, सदा
पशु के पशु ही रह जायें�-े ?
किसका सिं�-ार ? किसकी सेवा ?
नर का ही जब क�™्याण नहीं ?
किसके विकास की कथा ? जनों के
ही रक्षित जब प्राण नहीं ?

इस विस्मय का क्या समाधान ?
रह-रह कर यह क्या होता है ?
जो है अ�-्रणी वही सबसे
आ�-े बढ़ धीरज खोता है।
फिर उसकी क्रोधाकु�™ पुकार
सबको बेचैन बनाती है,
नीचे कर क्षीण मनुजता को
ऊपर पशुत्व को �™ाती है।

हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड
�™घु है, अब भी कुछ रीता है,
वय अधिक आज तक व्या�™ों के
पा�™न-पोषण में बीता है।
ये व्या�™ नहीं चाहते, मनुज
भीतर का सुधाकुण्ड खो�™े,
जब ज़हर सभी के मुख में हो
तब वह मीठी बो�™ी बो�™े। 

थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का
मन शीत�™ कर सकती है,
बाहर की अ�-र नहीं, पीड़ा
भीतर की तो हर सकती है।
�™ेकिन धीरता किसे ? अपने
सच्चे स्वरूप का ध्यान करे,
जब ज़हर वायु में उड़ता हो
पीयूष-विन्दू का पान करे।

पाण्डव यदि पाँच �-्राम
�™ेकर सुख से रह सकते थे,
तो विश्व-शान्ति के �™िए दुःख
कुछ �"र न क्या कह सकते थे ?
सुन कुटि�™ वचन दुर्योधन का
केशव न क्यों यह का नहीं-
"हम तो आये थे शान्ति हेतु,
पर, तुम चाहो जो, वही सही।

"तुम भड़काना चाहते अन�™
धरती का भा�- ज�™ाने को,
नरता के नव्य प्रसूनों को
चुन-चुन कर क्षार बनाने को।
पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहा�-
पर आ�- नहीं धरने दूँ�-ा,
जब तक जीवित हूँ, तुम्हें
बान्धवों से न युद्ध करने दूँ�-ा।

"�™ो सुखी रहो, सारे पाण्डव
फिर एक बार वन जायें�-े,
इस बार, माँ�-ने को अपना
वे स्वत्तव न वापस आयें�-े।
धरती की शान्ति बचाने को
आजीवन कष्ट सहें�-े वे,
नूतन प्रकाश फै�™ाने को
तप में मि�™ निरत रहें�-े वे।

शत �™क्ष मानवों के सम्मुख
दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?
यदि शान्ति विश्व की बचती हो,
वन में बसने में दुख क्या है ?
सच है कि पाण्डूनन्दन वन में
सम्राट् नहीं कह�™ायें�-े,
पर, का�™-�-्रन्थ में उससे भी
वे कहीं श्रेष्ठ पद पायें�-े।

"होकर कृतज्ञ आनेवा�™ा यु�-
मस्तक उन्हें झुकाये�-ा,
नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति
संसार यु�-ों तक �-ाये�-ा।
सीखे�-ा ज�-, हम द�™न युद्ध का
कर सकते, त्या�-ी होकर,
मानव-समाज का नयन मनुज
कर सकता वैरा�-ी होकर।"

पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं
होता क्या ऐसा कहने से ?
प्रतिकार अनय का हो सकता।
क्या उसे मौन हो सहने से ?
क्या वही धर्म, �™ौ जिसकी
दो-एक मनों में ज�™ती है।
या वह भी जो भावना सभी
के भीतर छिपी मच�™ती है।

सबकी पीड़ा के साथ व्यथा
अपने मन की जो जोड़ सके,
मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे
निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके।
यु�-पुरूष वही सारे समाज का
विहित धर्म�-ुरू होता है,
सबके मन का जो अन्धकार
अपने प्रकाश से धोता है।

द्वापर की कथा बड़ी दारूण,
�™ेकिन, क�™ि ने क्या दान दिया ?
नर के वध की प्रक्रिया बढ़ी
कुछ �"र उसे आसान किया।
पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्�-मुख था,
वह आज निन्द्य-सा �™�-ता है।
बस, इसी मन्दता के विकास का
भाव मनुज में ज�-ता है।

धीमी कितनी �-ति है ? विकास
कितना अदृश्य हो च�™ता है ?
इस महावृक्ष में एक पत्र
सदियों के बाद निक�™ता है।
थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व,
�™�-ता है वहीं खड़े हैं हम।
है वृथा वर्�-, उन �-ुफावासियों से
कुछ बहुत बड़े हैं हम।

अन�-ढ़ पत्थर से �™ड़ो, �™ड़ो
किटकिटा नखों से, दाँतों से,
या �™ड़ो ऋक्ष के रोम�-ुच्छ-पूरित
वज्रीकृत हाथों से;
या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से
�-ो�™ों की वृष्टि करो,
आ जाय �™क्ष्य में जो कोई,
निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।

ये तो साधन के भेद, किन्तु
भावों में तत्व नया क्या है ?
क्या खु�™ी प्रेम आँख अधिक ?
भतीर कुछ बढ़ी दया क्या है ?
झर �-यी पूँछ, रोमान्त झरे,
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर-बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।

देवत्व अ�™्प, पशुता अथोर,
तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,
द्वापर के मन पर भी प्रसरित
थी यही, आज वा�™ी, द्वाभा।
बस, इसी तरह, तब भी ऊपर
उठने को नर अकु�™ाता था,
पर पद-पद पर वासना-जा�™ में
उ�™झ-उ�™झ रह जाता था।

�"’ जिस प्रकार हम आज बे�™-
बूटों के बीच खचित करके,
देते हैं रण को रम्य रूप 
विप्�™वी उमं�-ों में भरके;
कहते, अनीतियों के विरूद्ध
जो युद्ध ज�-त में होता है,
वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का
बड़ा स�™ोना सोता है।

बस, इसी तरह, कहता हो�-ा
द्वाभा-शासित द्वापर का नर,
निष्ठुरताएँ हों भ�™े, किन्तु,
है महामोक्ष का द्वार समर।
सत्य ही, समुन्नति के पथ पर
च�™ रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,
कहता है क्रान्ति उसे, जिसको
पह�™े कहता था धर्मयुद्ध।

सो, धर्मयुद्ध छिड़ �-या, स्वर्�-
तक जाने के सोपान �™�-े,
सद्�-तिकामी नर-वीर खड्�- से
�™िपट �-ँवाने प्राण �™�-े।
छा �-या तिमिर का सघन जा�™,
मुँद �-ये मनुज के ज्ञान-नेत्र,
द्वाभा की �-िरा पुकार उठी,
"जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरूक्षेत्र !"

हाँ, धर्मक्षेत्र इस�™िए कि बन्धन
पर अबन्ध की जीत हुई,
कत्र्तव्यज्ञान पीछे छूटा,
आ�-े मानव की प्रीत हुई।
प्रेमातिरेक में केशव ने
प्रण भू�™ चक्र सन्धान किया,
भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से
अपना जीवन दान दिया।

2
�-िरि का उद�-्र �-ौरवाधार
�-िर जाय श्रृं�- ज्यों महाकार,
अथवा सूना कर आसमान
ज्यों �-िरे टूट रवि भासमान,
कौरव-द�™ का कर तेज हरण
त्यों �-िरे भीष्म आ�™ोकवरण।

कुरूकु�™ का दीपित ताज �-िरा,
थक कर बूढ़ा जब बाज़ �-िरा,
भू�™ूठित पितामह को वि�™ोक,
छा �-या समर में महाशोक।
कुरूपति ही धैर्य न खोता था,
अर्जुन का मन भी रोता था।

रो-धो कर तेज नया चमका,
दूसरा सूर्य सिर पर चमका,
कौरवी तेज दुर्जेय उठा,
रण करने को राधेय उठा,
सबके रक्षक �-ुरू आर्य हुए,
सेना-नायक आचार्य हुए।

राधेय, किन्तु जिनके कारण,
था अब तक किये मौन धारण,
उनका शुभ आशिष पाने को,
अपना सद्धर्म निभाने को,
वह शर-शय्या की �"र च�™ा,
प�--प�- हो विनय-विभोर च�™ा।

छू भीष्मदेव के चरण यु�-�™,
बो�™ा वाणी राधेय सर�™,
"हे तात ! आपका प्रोत्साहन,
पा सका नहीं जो �™ान्छित जन,
यह वही सामने आया है,
उपहार अश्रु का �™ाया है।

"आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ,
रण में च�™कर कुछ काम करूँ,
देखूँ, है कौन प्र�™य उतरा,
जिससे ड�-म�- हो रही धरा।
कुरूपति को विजय दि�™ाऊँ मैं,
या स्वयं विर�-ति पाऊँ मैं।

"अनुचर के दोष क्षमा करिये,
मस्तक पर वरद पाणि धरिये,
आखिरी मि�™न की वे�™ा है,
मन �™�-ता बड़ा अके�™ा है।
मद-मोह त्या�-ने आया हूँ,
पद-धू�™ि माँ�-ने आया हूँ।"
भीष्म ने खो�™ निज सज�™ नयन,
देखे कर्ण के आर्द्र �™ोचन
बढ़ खींच पास में �™ा करके,
छाती से उसे �™�-ा करके,
बो�™े-"क्या तत्व विशेष बचा ?
बेटा, आँसू ही शेष बचा।

"मैं रहा रोकता ही क्षण-क्षण,
पर हाय, हठी यह दुर्योधन,
अंकुश विवेक का सह न सका,
मेरे कहने में रह न सका,
क्रोधान्ध, भ्रान्त, मद में विभोर,
�™े ही आया सं�-्राम घोर।

"अब कहो, आज क्या होता है ?
किसका समाज यह रोता है ?
किसका �-ौरव, किसका सिं�-ार,
ज�™ रहा पंक्ति के आर-पार ?
किसका वन-बा�-़ उजड़ता है?
यह कौन मारता-मरता है ?

"फूटता द्रोह-दव का पावक,
हो जाता सक�™ समाज नरक,
सबका वैभव, सबका सुहा�-,
जाती डकार यह कुटि�™ आ�-।
जब बन्धु विरोधी होते हैं,
सारे कु�™वासी रोते हैं।

"इस�™िए, पुत्र ! अब भी रूककर,
मन में सोचो, यह महासमर,
किस �"र तुम्हें �™े जाये�-ा ?
फ�™ अ�™भ कौन दे पाये�-ा ?
मानवता ही मिट जाये�-ी,
फिर विजय सिद्धि क्या �™ाये�-ी ?

"�" मेरे प्रतिद्वन्दी मानी !
निश्छ�™, पवित्र, �-ुणमय, ज्ञानी !
मेरे मुख से सुन परूष वचन,
तुम वृथा म�™िन करते थे मन।
मैं नहीं निरा अवशंसी था,
मन-ही-मन बड़ा प्रशंसी था।

"सो भी इस�™िए कि दुर्योधन,
पा सदा तुम्हीं से आश्वासन,
मुझको न मानकर च�™ता था,
प�--प�- पर रूठ मच�™ता था।
अन्यथा पुत्र ! तुमसे बढ़कर
मैं किसे मानता वीर प्रवर ?

"पार्थोपम रथी, धनुर्धारी,
केशव-समान रणभट भारी,
धर्मज्ञ, धीर, पावन-चरित्र, 
दीनों-द�™ितों के विहित मित्र,
अर्जुन को मि�™े कृष्ण जैसे,
तुम मि�™े कौरवों को वैसे।

"पर हाय, वीरता का सम्ब�™,
रह जाये�-ा धनु ही केव�™ ?
या शान्ति हेतु शीत�™, शुचि श्रम,
भी कभी करें�-े वीर परम ?
ज्वा�™ा भी कभी बुझायें�-े ?
या �™ड़कर ही मर जायें�-े ?

"च�™ सके सुयोधन पर यदि वश,
बेटा ! �™ो ज�- में नया सुयश,
�™ड़ने से बढ़ यह काम करो,
आज ही बन्द सं�-्राम करो।
यदि इसे रोक तुम पा�"�-े,
ज�- के त्राता कह�™ा�"�-े।

"जा कहो वीर दुर्योधन से,
कर दूर द्वेष-विष को मन से,
वह मि�™ पाण्डवों से जाकर,
मरने दे मुझे शान्ति पाकर।
मेरा अन्तिम ब�™िदान रहे,
सुख से सारी सन्तान रहे।"

"हे पुरूष सिंह !" कर्ण ने कहा,
"अब �"र पन्थ क्या शेष रहा ?
सकंटापन्न जीवन समान,
है बीच सिन्धु में महायान;
इस पार शान्ति, उस पार विजय
अब क्या हो भ�™ा नया निश्चय ?

"जय मि�™े बिना विश्राम नहीं,
इस समय सन्धि का नाम नहीं,
आशिष दीजिये, विजय कर रण,
फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;
ज�™यान सिन्धु से तार सकूँ;
सबको मैं पार उतार सकूँ।

"क�™ तक था पथ शान्ति का सु�-म,
पर, हुआ आज वह अति दुर्�-म,
अब उसे देख �™�™चाना क्या ?
पीछे को पाँव हठाना क्या ?
जय को कर �™क्ष्य च�™ें�-े हम,
अरि-द�™ को �-र्व द�™ें�-े हम।

"हे महाभा�-, कुछ दिन जीकर,
देखिये �"र यह महासमर,
मुझको भी प्र�™य मचाना है,
कुछ खे�™ नया दिख�™ाना है;
इस दम तो मुख मोडि़ये नहीं;
मेरी हिम्मत तोडि़ये नहीं।

करने दीजिये स्वव्रत पा�™न,
अपने महान् प्रतिभट से रण,
अर्जुन का शीश उड़ाना है,
कुरूपति का हृदय जुड़ाना है।
करने को पिता अमर मुझको,
है बु�™ा रहा सं�-र मुझको।"

�-ां�-ेय निराशा में भर कर,
बो�™े-"तब हे नरवीर प्रवर !
जो भ�™ा �™�-े, वह काम करो,
जा�", रण में �™ड़ नाम करो।
भ�-वान्् शमित विष तूर्ण करें;
अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।"

भीष्म का चरण-वन्दन करके,
ऊपर सूर्य को नमन करके,
देवता वज्र-धनुधारी सा,
केसरी अभय म�-चारी-सा,
राधेय समर की �"र च�™ा,
करता �-र्जन घनघोर च�™ा।

पाकर प्रसन्न आ�™ोक नया,
कौरव-सेना का शोक �-या,
आशा की नव�™ तरं�- उठी, 
जन-जन में नयी उमं�- उठी,
मानों, बाणों का छोड़ शयन,
आ �-ये स्वयं �-ं�-ानन्दन।

सेना सम�-्र हुकांर उठी,
‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,
उ�™्�™ास मुक्त हो छहर उठा,
रण-ज�™धि घोष में घहर उठा,
बज उठी समर-भेरी भीषण,
हो �-या शुरू सं�-्राम �-हन।

सा�-र-सा �-र्जित, क्षुभित घोर,
विकरा�™ दण्डधर-सा कठोर,
अरिद�™ पर कुपित कर्ण टूटा,
धनु पर चढ़ महामरण छूटा।
ऐसी पह�™ी ही आ�- च�™ी,
पाण्डव की सेना भा�- च�™ी।

झंझा की घोर झकोर च�™ी,
डा�™ों को तोड़-मरोड़ च�™ी,
पेड़ों की जड़ टूटने �™�-ी,
हिम्मत सब की छूटने �™�-ी,
ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,
पर्वत का भी हि�™ प्राण उठा।

प्�™ावन का पा दुर्जय प्रहार,
जिस तरह काँपती है क�-ार,
या चक्रवात में यथा कीर्ण,
उड़ने �™�-ते पत्ते विशीर्ण,
त्यों उठा काँप थर-थर अरिद�™,
मच �-यी बड़ी भीषण ह�™च�™।

सब रथी व्य�-्र बि�™�™ाते थे,
को�™ाह�™ रोक न पाते थे।
सेना का यों बेहा�™ देख,
सामने उपस्थित का�™ देख,
�-रजे अधीर हो मधुसूदन,
बो�™े पार्थ से नि�-ूढ़ वचन।

"दे अचिर सैन्य का अभयदान,
अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,
तू नहीं जानता है यह क्या ?
करता न शत्रु पर कर्ण दया ?
दाहक प्रचण्ड इसका ब�™ है,
यह मनुज नहीं, का�™ान�™ है।

"बड़वान�™, यम या का�™पवन,
करते जब कभी कोप भीषण 
सारा सर्वस्व न �™ेते हैं,
उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।
पर, इसे क्रोध जब आता है;
कुछ भी न शेष रह पाता है।

बाणों का अप्रतिहत प्रहार,
अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,
त्यों �-र्जन पर �-र्जन निर्भय,
आ �-या स्वयं सामने प्र�™य,
तू इसे रोक भी पाये�-ा ?
या खड़ा मूक रह जाये�-ा।

‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर,
कैसे अशंक हो रहा विचर,
कर को जिस �"र बढ़ाता है?
पथ उधर स्वयं बन जाता है।
तू नहीं शरासन ताने�-ा,
अंकुश किसका यह माने�-ा ?

‘अर्जुन ! वि�™म्ब पातक हो�-ा,
शैथि�™्य प्राण-घातक हो�-ा,
उठ जा�- वीर ! मूढ़ता छोड़,
धर धनुष-बाण अपना कठोर।
तू नहीं जोश में आये�-ा
आज ही समर चुक जाये�-ा।"

केशव का सिंह दहाड़ उठा,
मानों चि�-्घार पहाड़ उठा।
बाणों की फिर �™�- �-यी झड़ी,
भा�-ती फौज हो �-यी खड़ी।
जूझने �™�-े कौन्तेय-कर्ण,
ज्यों �™ड़े परस्पर दो सुपर्ण।

एक ही वृम्त के को कुड्म�™, एक की कुक्षि के दो कुमार,
एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।
बेधने परस्पर �™�-े सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,
दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।

अन्धड़ बन कर उन्माद उठा,
दोनों दिशि जयजयकार हुई।
दोनों पक्षों के वीरों पर,
मानो, भैरवी सवार हुई।
कट-कट कर �-िरने �™�-े क्षिप्र,
रूण्डों से मुण्ड अ�™�- होकर,
बह च�™ी मनुज के शोणित की 
धारा पशु�"ं के प�- धोकर।

�™ेकिन, था कौन, हृदय जिसका,
कुछ भी यह देख दह�™ता था ?
थो कौन, नरों की �™ाशों पर,
जो नहीं पाँव धर च�™ता था ?
तन्वी करूणा की झ�™क झीन
किसको दिख�™ायी पड़ती थी ?
किसको कटकर मरनेवा�™ों की
चीख सुनायी पड़ती थी ?

केव�™ अ�™ात का घूर्णि-चक्र,
केव�™ वज्रायुध का प्रहार,
केव�™ विनाशकारी नत्र्तन,
केव�™ �-र्जन, केव�™ पुकार।
है कथा, द्रोण की छाया में
यों पाँच दिनों तक युद्ध च�™ा,
क्या कहें, धर्म पर कौन रहा,
या उसके कौन विरूद्ध च�™ा ?

था किया भीष्म पर पाण्डव ने,
जैसे छ�™-छद्मों से प्रहार,
कुछ उसी तरह निष्ठुरता से
हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !
फिर भी, भावुक कुरूवृद्ध भीष्म,
थे यु�- पक्षों के �™िए शरण,
कहते हैं, होकर विक�™,
मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।

अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु
अब तक भी हृदय हि�™ाती है,
सभ्यता नाम �™ेकर उसका 
अब भी रोती, पछताती है।
पर, हाय, युद्ध अन्तक-स्वरूप,
अन्तक-सा ही दारूण कठोर,
देखता नहीं ज्यायान्-युवा,
देखता नहीं बा�™क-किशोर।

सुत के वध की सुन कथा पार्थ का,
दहक उठा शोकात्र्त हृदय,
फिर किया क्रुद्ध होकर उसने,
तब महा �™ोम-हर्षक निश्चय,
‘क�™ अस्तका�™ के पूर्व जयद्रथ
को न मार यदि पाऊँ मैं,
सौ�-न्ध धर्म की मुझे, आ�- में
स्वयं कूद ज�™ जाऊँ मैं।’

तब कहते हैं अर्जुन के हित,
हो �-या प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,
माया की सहसा शाम हुई,
असमय दिनेश हो �-ये अस्त।
ज्यों त्यों करके इस भाँति वीर
अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,
सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक
निर्दोष पिता का चुर्ण हुआ।

हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से,
जब निपट रहा था भूरिश्रवा,
पार्थ ने काट �™ी, अनाहूत,
शर से उसकी दाहिनी भुजा।
�"‘ भूरिश्रवा अनशन करके,
जब बैठ �-या �™ेकर मुनि-व्रत,
सात्यकि ने मस्तक काट �™िया,
जब था वह निश्च�™, यो�--निरत।

है वृथा धर्म का किसी समय,
करना वि�-्रह के साथ �-्रथन,
करूणा से कढ़ता धर्म विम�™,
है म�™िन पुत्र हिंसा का रण।
जीवन के परम ध्येय-सुख-को
सारा समाज अपनाता है,
देखना यही है कौन वहाँ
तक किस प्रकार से जाता है ?

है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो
जीवन भर च�™ने में है।
फै�™ा कर पथ पर स्नि�-्ध ज्योति
दीपक समान ज�™ने में है।
यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त
हो जाती परतापी को भी,
सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;
मि�™ जाते है पापी को भी।

इस�™िए, ध्येय में नहीं, धर्म तो
सदा निहित, साधन में है,
वह नहीं सिकी भी प्रधन-कर्म,
हिंसा, वि�-्रह या रण में है।
तब भी जो नर चाहते, धर्म,
समझे मनुष्य संहारों को,
�-ूँथना चाहते वे, फू�™ों के
साथ तप्त अं�-ारों को।

हो जिसे धर्म से प्रेम कभी
वह कुत्सित कर्म करे�-ा क्या ?
बर्बर, करा�™, दंष्ट्री बन कर
मारे�-ा �"र मरे�-ा क्या ?
पर, हाय, मनुज के भा�-्य अभी
तक भी खोटे के खोटे हैं,
हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर
�™ेकिन, छोटे के छोटे हैं।

सं�-्राम धर्म�-ुण का विशेष्य
किस तरह भ�™ा हो सकता है ?
कैसे मनुष्य अं�-ारों से
अपना प्रदाह धो सकता है ?
सर्पिणी-उदर से जो निक�™ा,
पीयूष नहीं दे पाये�-ा,
निश्छ�™ होकर सं�-्राम धर्म का
साथ न कभी निभाये�-ा।

माने�-ा यह दंष्ट्री करा�™ 
विषधर भुजं�- किसका यन्त्रण ?
प�™-प�™ अति को कर धर्मसिक्त
नर कभी जीत पाया है रण ?
जो ज़हर हमें बरबस उभार,
सं�-्राम-भूमि में �™ाता है,
सत्पथ से कर विच�™ित अधर्म
की �"र वही �™े जाता है।

साधना को भू�™ सिद्धि पर जब
टकटकी हमारी �™�-ती है,
फिर विजय छोड़ भावना �"र
कोई न हृदय में ज�-ती है।
तब जो भी आते विघ्न रूप,
हो धर्म, शी�™ या सदाचार,
एक ही सदृश हम करते हैं
सबके सिर पर पाद-प्रहार।

उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,
होती है इन्हें कुच�™ने में,
जितनी होती है रोज़ कंकड़ो
के ऊपर हो च�™ने में।
सत्य ही, ऊध्र्व-�™ोचन कैसे
नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?
जब बड़ा �™क्ष्य हो खींच रहा,
छोटी बातों का ध्यान करे ?

च�™ता हो अन्ध ऊध्र्व-�™ोचन,
जानता नहीं, क्या करता है,
नीच पथ में है कौन ? पाँव
जिसके मस्तक पर धरता है।
काटता शत्रु को वह �™ेकिन,
साथ ही धर्म कट जाता है,
फाड़ता विपक्षी को अन्तर
मानवता का फट जाता है।

वासना-वह्नि से जो निक�™ा,
कैसे हो वह संयु�- कोम�™ ?
देखने हमें दे�-ा वह क्यों,
करूणा का पन्थ सु�-म शीत�™ ?
जब �™ोभ सिद्धि का आँखों पर,
माँड़ी बन कर छा जाता है
तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े
दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।

फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव
भी नहीं धर्म के साथ रहे ?
जो रं�- युद्ध का है, उससे,
उनके भी अ�™�- न हाथ रहे।
दोनों ने का�™िख छुई शीश पर,
जय का ति�™क �™�-ाने को,
सत्पथ से दोनों डि�-े, दौड़कर,
विजय-विन्दु तक जाने को।

इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के
दाहक कई दिवस बीते;
पर, विजय किसे मि�™ सकती थी,
जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?
था कौन सत्य-पथ पर डटकर,
जो उनसे यो�-्य समर करता ?
धर्म से मार कर उन्हें ज�-त् में,
अपना नाम अमर करता ?
था कौन, देखकर उन्हें समर में
जिसका हृदय न कँपता था ?
मन ही मन जो निज इष्ट देव का
भय से नाम न जपता था ?
कम�™ों के वन को जिस प्रकार
विद�™ित करते मदक�™ कुज्जर,
थे विचर रहे पाण्डव-द�™ में
त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।

सं�-्राम-बुभुक्षा से पीडि़त, 
सारे जीवन से छ�™ा हुआ,
राधेय पाण्डवों के ऊपर
दारूण अमर्ष से ज�™ा हुआ;
इस तरह शत्रुद�™ पर टूटा,
जैसे हो दावान�™ अजेय,
या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्�- से
उतर मनुज पर कात्र्तिकेय।

संघटित या कि उनचास मरूत
कर्ण के प्राण में छाये हों,
या कुपित सूय आकाश छोड़
नीचे भूत�™ पर आये हों।
अथवा रण में हो �-रज रहा
धनु �™िये अच�™ प्रा�™ेयवान,
या महाका�™ बन टूटा हो 
भू पर ऊपर से �-रूत्मान।

बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,
हो �-या शत्रुद�™ खण्ड-खण्ड,
ज�™ उठी कर्ण के पौरूष की
का�™ान�™-सी ज्वा�™ा प्रचण्ड।
दि�-्�-ज-दराज वीरों की भी 
छाती प्रहार से उठी हहर,
सामने प्र�™य को देख �-ये
�-जराजों के भी पाँव उखड़।

जन-जन के जीवन पर करा�™,
दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,
पाण्डव-सेना का हृास देख
केशव का वदन विवर्ण हुआ।
सोचने �™�-े, छूटें�-े क्या
सबके विपन्न आज ही प्राण ?
सत्य ही, नहीं क्या है कोई
इस कुपित प्र�™य का समाधान ?

"है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?"
राधेय �-रजता था क्षण-क्षण।
"करता क्यों नही प्रकट होकर, 
अपने करा�™ प्रतिभट से रण ?
क्या इन्हीं मू�™ियों से मेरी 
रणक�™ा निबट रह जाये�-ी ?
या किसी वीर पर भी अपना,
वह चमत्कार दिख�™ाये�-ी ?

"हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,
अब हाथ समेटे �™ेता हूँ,
सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,
मैं उसे चुनौती देता हूँ।
हिम्मत हो तो वह बढ़े,
व्यूह से निक�™ जरा सम्मुख आये,
दे मुझे जन्म का �™ाभ �"र
साहस हो तो खुद भी पाये।"

पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,
रथ अ�™�- नचाये फिरते थे,
कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,
शिष्य को बचाये फिरते थे।
चिन्ता थी, एकघ्नी करा�™,
यदि द्विरथ-युद्ध में छूटे�-ी,
पार्थ का निधन हो�-ा, किस्मत,
पाण्डव-समाज की फूटे�-ी।

नटना�-र ने इस�™िए, युक्ति का
नया यो�- सन्धान किया,
एकघ्नि-हव्य के �™िए घटोत्कच
का हरि ने आह्वान किया।
बो�™े, "बेटा ! क्या देख रहा ?
हाथ से विजय जाने पर है,
अब सबका भा�-्य एक तेरे
कुछ करतब दिख�™ाने पर है।

"यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि
कैस करा�™ झड़ �™ाती है ?
�-ो के समान पाण्डव-सेना
भय-विक�™ भा�-ती जाती है।
ति�™ पर भी भूिम न कहीं खड़े
हों जहाँ �™ो�- सुस्थिर क्षण-भर,
सारी रण-भू पर बरस रहे
एक ही कर्ण के बाण प्रखर।

"यदि इसी भाँति सब �™ो�-
मृत्यु के घाट उतरते जायें�-े,
क�™ प्रात कौन सेना �™ेकर
पाण्डव सं�-र में आयें�-े ?
है विपद् की घड़ी,
कर्ण का निर्भय, �-ाढ़, प्रहार रोक।
बेटा ! जैसे भी बने, पाण्डवी
सेना का संहार रोक।"

फूटे ज्यों वह्निमुखी पर्वत,
ज्यों उठे सिन्धु में प्र�™य-ज्वार,
कूदा रण में त्यों महाघोर
�-र्जन कर दानव किमाकार।
सत्य ही, असुर के आते ही
रण का वह क्रम टूटने �™�-ा,
कौरवी अनी भयभीत हुई;
धीरज उसका छूटने �™�-ा।

है कथा, दानवों के कर में
थे बहुत-बहुत साधन कठोर,
कुछ ऐसे भी, जिनपर, मनुष्य का
च�™ पाता था नहीं जोर।
उन अ�-म साधनों के मारे
कौरव सेना चि�-्घार उठी,
�™े नाम कर्ण का बार-बार,
व्याकु�™ कर हाहाकार उठी।

�™ेकिन, अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत,
अनवरत-युद्ध-रत, धीर कर्ण,
मन-ही-मन था हो रहा स्वयं,
इस रण से कुछ विस्मित, विवर्ण।
बाणों से ति�™-भर भी अबिद्ध,
था कहीं नहीं दानव का तन;
पर, हुआ जा रहा था वह पशु,
प�™-प�™ कुछ �"र अधिक भीषण।

जब किसी तरह भी नहीं रूद्ध, 
हो सकी महादानव की �-ति,
सारी सेना को विक�™ देख,
बो�™ा कर्ण से स्वयं कुरूपति,
"क्या देख रहे हो सखे ! दस्यु
ऐसे क्या कभी मरे�-ा यह ?
दो घड़ी �"र जो देर हुई,
सबका संहार करे�-ा यह।

"हे वीर ! वि�™पते हुए सैन्य का,
अचिर किसी विधि त्राण करो।
अब नहीं अन्य �-ति; आँख मूँद,
एकघ्नी का सन्धान करो।
अरि का मस्तक है दूर, अभी
अपनों के शीश बचा�" तो,
जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम,
उसमें से हमें छुड़ा�" तो।"

सुन सहम उठा राधेय, मित्र की
�"र फेर निज चकित नयन,
झुक �-या विवशता में कुरूपति का
अपराधी, कातर आनन।
मन-ही-मन बो�™ा कर्ण, "पार्थ !
तू वय का बड़ा ब�™ी निक�™ा,
या यह कि आज फिर एक बार,
मेरा ही भा�-्य छ�™ी निक�™ा।"

रहता आया था मुदित कर्ण
जिसका अजेय सम्ब�™ �™ेकर,
था किया प्राप्त जिसको उसने,
इन्द्र को कवच-कुण्ड�™ देकर,
जिसकी करा�™ता में जय का,
विश्वास अभय हो प�™ता था,
केव�™ अर्जुन के �™िए उसे,
राधेय जु�-ाये च�™ता था।

वह का�™-सर्पिणी की जिह्वा,
वह अट�™ मृत्यु की स�-ी स्वसा,
घातकता की वाहिनी, शक्ति
यम की प्रचण्ड, वह अन�™-रसा,
�™प�™पा आ�--सी एकघ्नी
तूणीर छोड़ बाहर आयी,
चाँदनी मन्द पड़ �-यी, समर में
दाहक उज्जव�™ता छायी।

कर्ण ने भा�-्य को ठोंक उसे,
आखिर दानव पर छोड़ दिया,
विह्�™ हो कुरूपति को वि�™ोक,
फिर किसी �"र मुख मोड़ �™िया।
उस असुर-प्राण को बेध, दृष्टि
सबकी क्षर भर त्रासित करके,
एकघ्नी ऊपर �™ीन हुई,
अम्बर को उद्धभासित करके।

पा धमक, धरा धँस उछ�™ पड़ी,
ज्यों �-िरा दस्यु पर्वताकार,
"हा ! हा !" की चारों �"र मची,
पाण्डव द�™ में व्याकु�™ पुकार।
नरवीर युधिष्ठिर, नकु�™, भीम
रह सके कहीं कोई न धीर,
जो जहाँ खड़े थे, �™�-े वहीं
करने कातर क्रन्दन �-ंभीर।

सारी सेना थी चीख रही,
सब �™ो�- व्य�-्र बि�™खाते थे;
पर बड़ी वि�™क्षण बात !
हँसी नटना�-र रोक न पाते थे।
ट�™ �-यी विपद् कोई सिर से,
या मि�™ी कहीं मन-ही-मन जय,
क्या हुई बात ? क्या देख हुए
केशव इस तरह वि�-त-संशय ?

�™ेकिन समर को जीत कर,
निज वाहिनी को प्रीत कर,
व�™यित �-हन �-ुन्जार से,
पूजित परम जयकार से,
राधे�- सं�-र से च�™ा, मन में कहीं खोया हुआ,
जय-घोष की झंकार से आ�-े कहीं सोया हुआ

हारी हुई पाण्डव-चमू में हँस रहे भ�-वान् थे,
पर जीत कर भी कर्ण के हारे हुए-से प्राण थे
क्या, सत्य ही, जय के �™िए केव�™ नहीं ब�™ चाहिए
कुछ बुद्धि का भी घात; कुछ छ�™-छद्म-कौश�™ चाहिए

क्या भा�-्य का आघात है ;!
कैसी अनोखी बात है ;?
मोती छिपे आते किसी के आँसु�"ं के तार में,
हँसता कहीं अभिशाप ही आनन्द के उच्चार में।

म�-र, यह कर्ण की जीवन-कथा है,
नियति का, भा�-्य का इं�-ित वृथा है। 
मुसीबत को नहीं जो झे�™ सकता,
निराशा से नहीं जो खे�™ सकता,
पुरूष क्या, श्रृंख�™ा को तोड़ करके,
च�™े आ�-े नहीं जो जोर करके ?

सप्तम सर्�-

निशा बीती, �-�-न का रूप दमका,
किनारे पर किसी का चीर चमका।
क्षितिज के पास �™ा�™ी छा रही है,
अत�™ से कौन ऊपर आ रही है ?

संभा�™े शीश पर आ�™ोक-मंड�™
दिशा�"ं में उड़ाती ज्योतिरंच�™,
किरण में स्नि�-्ध आतप फेंकती-सी,
शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,

ख�-ों का स्पर्श से कर पंख-मोचन
कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त �™ोचन,
दिवस की स्वामिनी आई �-�-न में,
उडा कुंकुम, ज�-ा जीवन भुवन में ।

म�-र, नर बुद्धि-मद से चूर होकर,
अ�™�- बैठा हुआ है दूर होकर,
उषा पोंछे भ�™ा फिर आँख कैसे ?
करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे ?

मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है,
कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,
प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ?
सितारों के हृदय में राह खोजे ?

विभा नर को नहीं भरमाय�-ी यह है ?
मनस्वी को कहाँ �™े जाय�-ी यह ?
कभी मि�™ता नहीं आराम इसको,
न छेड़ो, है अनेकों काम इसको ।

महाभारत मही पर च�™ रहा है,
भुवन का भा�-्य रण में ज�™ रहा है।
मनुज �™�™कारता फिरता मनुज को,
मनुज ही मारता फिरता मनुज को ।

पुरुष की बुद्धि �-ौरव खो चुकी है,
सहे�™ी सर्पिणी की हो चुकी है,
न छोड़े�-ी किसी अपकर्म को वह,
नि�-�™ ही जाय�-ी सद्धर्म को वह ।

मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,
पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,
मचे घनघोर हाहाकार ज�- में,
भरे वैधव्य की चीत्कार ज�- में,

म�-र, पत्थर हुआ मानव- हृदय है,
फकत, वह खोजता अपनी विजय है,
नहीं ऊपर उसे यदि पाय�-ा वह,
पतन के �-र्त में भी जाय�-ा वह ।

पड़े सबको �™िये पाण्डव पतन में,
�-िरे जिस रोज होणाचार्य रण में,
बड़े धर्मिंष्ठ, भावुक �"र भो�™े,
युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बो�™े ।

नहीं थोड़े बहुत का मेद मानो,
बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,
�-�™ें�-े बर्फ में मन भी, नयन भी,
अँ�-ूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी ।

नमन उनको, �-ये जो स्वर्�- मर कर,
क�™ंकित शत्रु को, निज को अमर कर,
नहीं अवसर अधिक दुख-दैन्य का है,
हुआ राधेय नायक सैन्य का है ।

ज�-ा �™ो वह निराशा छोड़ करके,
द्विधा का जा�™ झीना तोड़ करके,
�-रजता ज्योति-के आधार ! जय हो,
चरम आ�™ोक मेरा भी उदय हो ।

बहुत धुधुआ चुकी, अब आ�- फूटे,
किरण सारी सिमट कर आज छुटे ।
छिपे हों देवता ! अं�-ार जो भी,"
दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,

उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे !
मुझे मेरा ज्व�™ित श्रृं�-ार दो हे !
पवन का वे�- दो, दुर्जय अन�™ दो,
विकर्तन ! आज अपना तेज-ब�™ हूँ दो !

मही का सूर्य होना चाहता हूँ,
विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।
समय को चाहता हूँ दास करना,
अभय हो मृत्यु का उपहास करना ।

भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,
हिमा�™य को उठाना चाहता हूँ,
समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,
धरा हूँ चाहता श्री को करों से ।

�-्रहों को खींच �™ाना चाहता हूँ,
हथे�™ी पर नचाना चाहता हूँ ।
मच�™ना चाहता हूँ धार पर मैं,
हँसा हूँ चाहता अं�-ार पर मैं।

समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,
धधक कर आज जीना चाहता हूँ,
समय को बन्द करके एक क्षण में,
चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं ।

असंभव क�™्पना साकार हो�-ी,
पुरुष की आज जयजयकार हो�-ी।
समर वह आज ही हो�-ा मही पर,
न जैसा था हुआ पह�™े कहीं पर ।

चरण का भार �™ो, सिर पर सँभा�™ो;
नियति की दूतियो ! मस्तक झुका �™ो ।
च�™ो, जिस भाँति च�™ने को कहूँ मैं,
ढ�™ो, जिस माँति ढ�™ने को कहूँ मैं ।

न कर छ�™-छद्म से आघात फू�™ो,
पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भू�™ो ।
कुच�™ दूँ�-ा, निशानी मेट दूँ�-ा,
चढा दुर्जय भुजा की भेंट दूँ�-ा ।

अरी, यों भा�-ती कबतक च�™ो�-ी ?
मुझे �" वंचिके ! कबतक छ�™ो�-ी ?
चुरा�"�-ी कहाँ तक दाँव मेरा ?
रखो�-ी रोक कबतक पाँव मेरा ?

अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,
हृदय की भावना निष्काम तुमसे,
च�™े संघर्ष आठों याम तुमसे,
करूँ�-ा अन्त तक सं�-्राम तुमसे ।

कहाँ तक शक्ति से वंचित करो�-ी ?
कहाँ तक सिद्धियां मेरी हरो�-ी ?
तुम्हारा छद्म सारा शेष हो�-ा,
न संचय कर्ण का नि:शेष हो�-ा ।

कवच-कुण्ड�™ �-या; पर, प्राण तो हैं,
भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,
�-ई एकघ्नि तो सब कुछ �-या क्या ?
बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या ?

समर की सूरता साकार हूँ मैं,
महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।
विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,
कवच है आज तक का धर्म मेरा ।

तपस्या�" ! उठो, रण में �-�™ो तुम,
नई एकघ्नियां वन कर ढ�™ो तुम,
अरी �" सिद्धियों की आ�-, आ�";
प्र�™य का तेज बन मुझमें समा�" ।

कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम,
अरी व्रत-साधने ! आकार �™ो तुम ।
हमारे यो�- की पावन शिखा�",
समर में आज मेरे साथ आ�" ।

उ�-ी हों ज्योतियां यदि दान से भी,
मनुज-निष्ठा, द�™ित-क�™्याण से भी,
च�™ें वे भी हमारे साथ होकर,
पराक्रम-शौर्य की ज्वा�™ा संजो कर ।

हृदय से पूजनीया मान करके,
बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,
सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,
अ�-र आशीष उनसे �™े सका हूँ,

समर में तो हमारा वर्म हो वह,
सहायक आज ही सत्कर्म हो वह ।
सहारा, माँ�-ता हूँ पुण्य-ब�™ का,
उजा�-र धर्म का, निष्ठा अच�™ का।

प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,
विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ ।
स्वयं भ�-वान मेरे शत्रु को �™े च�™ रहे हैं,
अनेकों भाँति से �-ोविन्द मुझको छ�™ रहे हैं।

म�-र, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुके�-ा,
नहीं �-ोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुके�-ा,
बताऊँ�-ा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,
समर कहते किसे हैं �"र जय का मर्म क्या है ।

बचा कर पाँव धरना, थाहते च�™ना समर को,
'बनाना �-्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,
पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,
सभी के सामने �™�™कार को मन मार सहना ।

प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,
धनुष ढी�™ा, शिथि�™ उसका जरा कुछ तीर हो जब ।
कहाँ का धर्म ? कैसी भर्त्सना की बात है यह ?
नहीं यह वीरता, कौटि�™्य का अपघात है यह ।

समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिख�™ा रहे हैं,
ज�-त को कौन नूतन पुण्य-पथ दिख�™ा रहे हैं ।
हुआ वध द्रोण का क�™ जिस तरह वह धर्म था क्या ?
समर्थन-यो�-्य केशव के �™िए वह कर्म था क्या ?

यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पा�™न यही है ?
मनुज म�™पुंज के मा�™िन्य का क्षा�™न यही है ?
यही कुछ देखकर संसार क्या आ�-े बढ़े�-ा ?
जहाँ �-ोविन्द हैं, उस श्रृं�- के ऊपर चढ़े�-ा ?

करें भ�-वान जो चाहें, उन्हें सब क्वा क्षमा है,
म�-र क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है ?
च�™ें वे बुद्धि की ही चा�™, मैं ब�™ से च�™ूं�-ा ?
न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छ�™ूं�-ा ।

डि�-ाना घर्म क्या इस चार बित्त्रों की मही को ?
भु�™ाना क्या मरण के बादवा�™ी जिन्द�-ी को ?
बसाना एक पुर क्या �™ाख जन्मों को ज�™ा कर !
मुकुट �-ढ़ना भ�™ा क्या पुण्य को रण में �-�™ा कर ?

नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-�"क �™े�-ा,
विजय पाये न पाये, रश्मियों का �™ोक �™े�-ा !
विजय-�-ुरु कृष्ण हों, �-ुरु किन्तु, मैं ब�™िदान का हूँ;
असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ ।

ज�-ी, व�™िदान की पावन शिखा�",
समर में आज कुछ करतब दिखा�" ।
नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,
धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो ।

मचे भूडो�™ प्राणों के मह�™ में,
समर डूबे हमारे बाहु-ब�™ में ।
�-�-न से वज्र की बौछार छूटे,
किरण के तार से झंकार फूटे ।

च�™ें अच�™ेश, पारावार डो�™े;
मरण अपनी पुरी का द्वार खो�™े ।
समर में ध्वंस फटने जा रहा है,
महीमंड�™ उ�™टने जा रहा है ।
अनूठा कर्ण का रण आज हो�-ा,
ज�-त को का�™-दर्शन आज हो�-ा ।
प्र�™य का भीम नर्तन आज हो�-ा,
वियद्व्यापी विवर्तन आज हो�-ा ।

विशिख जब छोड़ कर तरकस च�™े�-ा,
नहीं �-ोविन्द का भी बस च�™े�-ा ।
�-िरे�-ा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,
जयी कुरुराज �™ौटे�-ा समर से ।

बना आनन्द उर में छा रहा है,
�™हू में ज्वार उठता जा रहा है ।
हुआ रोमांच यह सारे बदन में,
उ�-े हैं या कटी�™े वृक्ष तन में ।

अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ,
ज�-ा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ ?
बजा�", युद्ध के बाजे बजा�",
सजा�", श�™्य ! मेरा रथ सजा�" ।

2
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, �-ह�-हा उठा अम्बर विशा�™,
कूदा स्यन्दन पर �-रज कर्ण ज्यों उठे �-रज क्रोधान्ध का�™ ।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उ�™्�™सित वीर कर उठे हूह,
उच्छ�™ सा�-र-सा च�™ा कर्ण को �™िये क्षुब्ध सैनिक-समूह ।

हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर, दन्ताव�™ का वृहित अपार,
टंकार धुनुर्�-ुण की भीम, दुर्मद रणशूरों की पुकार ।
ख�™म�™ा उठा ऊपर ख�-ो�™, क�™म�™ा उठा पृथ्वी का तन,
सन-सन कर उड़ने �™�-े विशिख, झनझना उठी असियाँ झनझन ।

ता�™ोच्च-तरं�-ावृत बुभुक्षु-सा �™हर उठा सं�-र-समुद्र,
या पहन ध्वंस की �™पट �™�-ा नाचने समर में स्वयं रुद्र ।
हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना प्रज्व�™ित मर्त्य जन होता है ?
सुरपति से छ�™े हुए नर का कैसा प्रचण्ड रण होता है ?

अङ�-ार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की �-ति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण ।
यम के समक्ष जिस तरह नहीं च�™ पाता बध्द मनुज का वश,
हो �-यी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश ।

भा�-ने �™�-े नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,
भा�-े जिस तरह �™वा का द�™ सामने देख रोषण सुपर्ण !
'रण में क्यों आये आज ?' �™ो�- मन-ही-मन में पछताते थे,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे ।

काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय �-रजता था क्षण-क्षण ।
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह �™रजता था क्षण-क्षण ।
अरि की सेना को विक�™ देख, बढ च�™ा �"र कुछ समुत्साह;
कुछ �"र समुद्वे�™ित होकर, उमडा भुज का सा�-र अथाह ।

�-रजा अशङक हो कर्ण, 'श�™्य ! देखो कि आज क्या करता हूं,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं ।
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-ति�™क सजा करके,
�™ौटें�-े हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके ।

इतने में कुटि�™ नियति-प्रेरित पड �-़ये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज ।
�™ेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न �-हरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-क�™्प, मृदु�™ काया ।

भा�-े वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र �-हा �-्रीव,
कौतुक से बो�™ा, 'महाराज ! तुम तो निक�™े कोम�™ अतीव ।
हां, भीरु नहीं, कोम�™ कहकर ही, जान बचाये देता हूं ।
आ�-े की खातिर एक युक्ति भी सर�™ बताये देता हूं ।

'हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-त�™े कहीं, निर्जन वन में,
क्या काम साधु�"ं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झे�™ा करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी �-रुड क़ी झपटों से खे�™ा करिये ।'

भा�-े विपन्न हो समर छोड �-्�™ानि में निमज्जित धर्मराज,
सोचते, "कहे�-ा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण �-्�™ानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया ।"

समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किस�™िए प्राण,
�-रदन पर आकर �™ौट �-यी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?
�™ेकिन, अदृश्य ने �™िखा, कर्ण ने वचन धर्म का पा�™ किया,
खड्�- का छीन कर �-्रास, उसे मां के अञ्च�™ में डा�™ दिया ।

कितना पवित्र यह शी�™ ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में ।
सहदेव, युधिष्ठर, नकु�™, भीम को बार-बार बस में �™ाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङि�-त पाकर ।

देखता रहा सब श्�™य, किन्तु, जब इसी तरह भा�-े पवितन,
बो�™ा होकर वह चकित, कर्ण की �"र देख, यह परुष वचन,
'रे सूतपुत्र ! किस�™िए विकट यह का�™पृष्ठ धनु धरता है ?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?'

'सं�-्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करे�-ा क्या ?
मारे�-ा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरे�-ा क्या ?
रण का विचित्र यह खे�™, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है ।'

हंसकर बो�™ा राधेय, 'श�™्य, पार्थ की भीति उसको हो�-ी,
क्षयमान्, क्षनिक, भं�-ुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको हो�-ी ।
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं ।

'पर �-्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्च�™ किस अन्तर के सुख से;
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है ।

'सब आंख मूंद कर �™डते हैं, जय इसी �™ोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को,
सबके समेत पङिक�™ सर में, मेरे भी चरण पडें�-़े क्या ?
ये �™ोभ मृत्तिकामय ज�- के, आत्मा का तेज हरें�-े क्या ?

यह देह टूटने वा�™ी है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो �™े जाना है विमान ।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्ड�™ में सोपान बनाने को,
ये चार फु�™ फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को

ये चार फु�™ हैं मो�™ किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
ये चार फु�™ प्रच्छन्न दान हैं किसी महाब�™ दानी के ।
ये चार फु�™, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फु�™ पाकर प्रसन्न हंसते हों�-े अन्तर्यामी ।'

'समझो�-े नहीं श�™्य इसको, यह करतब नादानों का हैं,
ये खे�™ जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं ।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अ�™�- खडे ज़ो जीते हैं ।'

समझा न, सत्य ही, श�™्य इसे, बो�™ा 'प्र�™ाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो �™ो करो समर,ब�™ हो, तो अपना धनुष धरो ।
�™ो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है ।'

'क्या वे�-वान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है,
आ�-े सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है ।
राधेय ! का�™ यह पहंुच �-या, शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विक�™ सदा जिसके हित, वह �™ा�™सा समर की पूर्ण करो ।'

पार्थ को देख उच्छ�™-उमं�--पूरित उर-पारावार हुआ,
दम्भो�™ि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ ।
वो�™ा 'विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,
जिस �™िए प्रकृति के अन�™-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया ।

'जिस दिन के �™िए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,
आ �-या भा�-्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण ।
आ�", हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें ।'

'पर, सावधान, इस मि�™न-बिन्दु से अ�™�- नहीं होना हो�-ा,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना हो�-ा ।
हो �-या बडा अतिका�™, आज निर्णय अन्तिम कर �™ेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है ।'

कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,
बो�™ा, 'रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही यो�-्य निश्चय ।
पर कौन रहे�-ा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! �™े, अभी हटाये देता हूं ।'

यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया ।
पर, कर्ण झे�™ वह महा विशिक्ष, कर उठा का�™-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब �-ये, छा �-या निनद से दिशाकाश ।

बो�™ा, 'शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब �-हन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अ�-र आन कर मुझ पर वह बेकार रहा ।
मत कवच �"र कुण्ड�™ विहीन, इस तन को मृदु�™ कम�™ समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थ�™ को, अब भी दुर्भेद्य अच�™ समझो ।'

'अब �™ो मेरा उपहार, यही यम�™ोक तुम्हें पहुंचाये�-ा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मि�™ जाये�-ा ।'
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकरा�™ शरासन पर धरके ।'

संभ�™ें जब तक भ�-वान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विक�™, विध्द, मूच्र्छित हो �-िरा पृथानन्दन ।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङ�-र में हाहाकार हुआ,
सब �™�-े पूछने, 'अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?'

पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द;
क्रोधान्ध �-रज कर �™�-ा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द ।
प्रावृट्-से �-रज-�-रज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तु�™ा-मध्य सन्तु�™ित खडी, �™ेकिन दोनों की जीत हार ।

इस �"र कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस �"र पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्र�™य, हो उठा समर में मूर्तिमान ।
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमु�-्ध,
अप�™क होकर देखने �™�-ी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द ।

है कथा, नयन का �™ोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुर�-ण,
भर �-या विमानों से ति�™-ति�™, कुरुभू पर क�™क�™-नदित-�-�-न ।
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखि�™ रुप तन्मय-�-भीर,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अच�™ नीर ।

अहा ! यह यु�-्म दो अद्भुत नरों का,
महा मदमत्त मानव- कुंजरों का;
नृ�-ुण के मूर्तिमय अवतार ये दो,
मनुज-कु�™ के सुभ�- श्रृं�-ार ये दो।

परस्पर हो कहीं यदि एक पाते,
�-्रहण कर शी�™ की यदि टेक पाते,
मनुजता को न क्या उत्थान मि�™ता ?
अनूठा क्या नहीं वरदान मि�™ता ?

मनुज की जाति का पर शाप है यह,
अभी बाकी हमारा पाप है यह,
बड़े जो भी कुसुम कुछ फू�™ते हैं,
अहँकृति में भ्रमित हो भू�™ते हैं ।

नहीं हि�™मि�™ विपिन को प्यार करते,
झ�-ड़ कर विश्व का संहार करते ।
ज�-त को डा�™ कर नि:शेष दुख में,
शरण पाते स्वयं भी का�™-मुख में ।

च�™े�-ी यह जहर की क्रान्ति कबतक ?
रहे�-ी शक्ति-वंचित शांति कबतक ?
मनुज मनुजत्व से कबतक �™ड़े�-ा ?
अन�™ वीरत्व से कबतक झड़े�-ा ?

विकृति जो प्राण में अं�-ार भरती,
हमें रण के �™िए �™ाचार करती,
घटे�-ी तीव्र उसका दाह कब तक ?
मि�™े�-ी अन्य उसको राह कब तक ?

ह�™ाह�™ का शमन हम खोजते हैं,
म�-र, शायद, विमन हम खोजते हैं,
बुझाते है दिवस में जो जहर हम,
ज�-ाते फूंक उसको रात भर हम ।

किया कुंचित, विवेचन व्यस्त नर का,
हृदय शत भीति से संत्रस्त नर का ।
महाभारत मही पर च�™ रहा है,
भुवन का भा�-्य रण में ज�™ रहा है ।

च�™ रहा महाभारत का रण,
ज�™ रहा धरित्री का सुहा�-,
फट कुरुक्षेत्र में खे�™ रही
नर के भीतर की कुटि�™ आ�- ।
बाजियों-�-जों की �™ोथों में
�-िर रहे मनुज के छिन्न अं�-,
बह रहा चतुष्पद �"र द्विपद
का रुधिर मिश्र हो एक सं�- ।

�-त्वर, �-ैरेय, सुघर भूधर-से
�™िये रक्त-रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौन्तेय-कर्ण
क्षण-क्षण करते �-र्जन �-ंभीर ।
दोनों रणकृश�™ धनुर्धर नर,
दोनों समब�™, दोनों समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोघ
थी विशिख-वृष्टि हो रही व्यर्थ ।

इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङ�-,
तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भूजङ�-,
कहता कि 'कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजं�-ो का स्वामी हूं,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूं ।

'बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे,
इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सु�™ाने दे ।
कर वमन �-र�™ जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूं�-ा,
तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूं�-ा ।'

राधेय जरा हंसकर बो�™ा, 'रे कुटि�™! बात क्या कहता है ?
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है ।
उस पर भी सांपों से मि�™ कर मैं मनुज, मनुज से युध्द करूं ?
जीवन भर जो निष्ठा पा�™ी, उससे आचरण विरुध्द करूं ?'

'तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊं�-ा,
आनेवा�™ी मानवता को, �™ेकिन, क्या मुख दिख�™ाऊं�-ा ?
संसार कहे�-ा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया;
प्रतिभट के वध के �™िए सर्प का पापी ने साहाय्य �™िया ।'

'रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-�-्राम-घरों में भी ।
ये नर-भुजङ�- मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिब�™ के वध के �™िए नीच साहाय्य सर्प का �™ेते हैं ।'

'ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्व�™ नाम चढे ।
पाकर मेरा आदर्श �"र कुछ नरता का यह पाप बढे ।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है ।'

'अ�-�™ा जीवन किस�™िए भ�™ा, तब हो द्वेषान्ध बि�-ाडं मैं ?
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं मैं ?
जा भा�-, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह क�™ङक अपने पर नहीं �™�-ा सकता ।'

काकोदर को कर विदा कर्ण, फिर बढ़ा समर में �-र्जमान,
अम्बर अनन्त झङकार उठा, हि�™ उठे निर्जरों के विमान ।
तूफ़ान उठाये च�™ा कर्ण ब�™ से धके�™ अरि के द�™ को,
जैसे प्�™ावन की धार बहाये च�™े सामने के ज�™ को।

पाण्डव-सेना भयभीत भा�-ती हुई जिधर भी जाती थी;
अपने पीछे दौडते हुए वह आज कर्ण को पाती थी ।
रह �-यी किसी के भी मन में जय की किञ्चित भी नहीं आस,
आखिर, बो�™े भ�-वान् सभी को देख व्याकु�™ हताश ।

'अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा,
किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशङक वह �™ूट रहा ।
देखो जिस तरफ़, उधर उसके ही बाण दिखायी पडते हैं,
बस, जिधर सुनो, केव�™ उसके हुङकार सुनायी पडते हैं ।'

'कैसी करा�™ता ! क्या �™ाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार !
किस �-ौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार !
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, सं�-्राम उजडता जाता है,
ऐसी तो नहीं कम�™ वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है ।'

'इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहा�™ नयन,
कुछ बुरा न मानो, कहता हूं, मैं आज एक चिर-�-ूढ वचन ।
कर्ण के साथ तेरा ब�™ भी मैं खूब जानता आया हूं,
मन-ही-मन तुझसे बडा वीर, पर इसे मानता आया हूं ।'

�"' देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में,
है भी कोई, जो जीत सके, इस अतु�™ धनुर्धर को रण में ?
मैं चक्र सुदर्शन धरूं �"र �-ाण्डीव अ�-र तू ताने�-ा,
तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा माने�-ा ।'

'यह नहीं देह का ब�™ केव�™, अन्तर्नभ के भी विवस्वान्,
हैं किये हुए मि�™कर इसको इतना प्रचण्ड जाज्व�™्यमान ।
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है;
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के ज�- का अधिकारी है ।'

'कर रहा का�™-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास �™िये,
है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर क्या दिव्य प्रकाश �™िये !
जब भी देखो, तब आंख �-डी सामने किसी अरिजन पर है,
भू�™ ही �-या है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है ।'

'अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-ब�™ का आह्वान करो,
अर्जित असंख्य विद्या�"ं का हो सज�- हृदय में ध्यान करो ।
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच �™ाना हो�-ा,
तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिख�™ाना हो�-ा ।'

दिनमणि पश्चिम की �"र ढ�™े देखते हुए सं�-्राम घोर,
�-रजा सहसा राधेय, न जाने, किस प्रचण्ड सुख में विभोर ।
'सामने प्रकट हो प्र�™य ! फाड़ तुझको मैं राह बनाऊं�-ा,
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊं�-ा ।'

'क्या धमकाता है का�™ ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं ।
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं ।
�" श�™्य ! हयों को तेज करो, �™े च�™ो उड़ाकर शीघ्र वहां,
�-ोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां ।'

'हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्ताव�™ हों चिं�-्घार रहे,
रण को करा�™ घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे,
कटते हों अ�-णित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर आर्त्तनाद क्षण-क्षण,
झनझना रही हों त�™वारें; उडते हों ति�-्म विशिख सन-सन ।'

'संहार देह धर खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण �-र्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो ।
�™े च�™ो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण ।'

समझ में श�™्य की कुछ भी न आया,
हयों को जोर से उसने भ�-ाया ।
निकट भ�-वान् के रथ आन पहुंचा,
अ�-म, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?

अ�-म की राह, पर, सचमुच, अ�-म है,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है ।
न जानें न्याय भी पहचानती है,
कुटि�™ता ही कि केव�™ जानती है ?

रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका,
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका,
अबाधित दान का आधार था जो,
धरित्री का अतु�™ श्रृङ�-ार था जो,

क्षुधा जा�-ी उसी की हाय, भू को,
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को ?
रुधिर के पङक में रथ को जकड़ क़र,
�-यी वह बैठ चक्के को पकड़ क़र ।

�™�-ाया जोर अश्वों ने न थोडा,
नहीं �™ेकिन, मही ने चक्र छोडा ।
वृथा साधन हुए जब सारथी के,
कहा �™ाचार हो उसने रथी से ।

'बडी राधेय ! अद्भुत बात है यह ।
किसी दु:शक्ति का ही घात है यह ।
जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है,
म�-र, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है;'

'निका�™े से निक�™ता ही नहीं है,
हमारा जोर च�™ता ही नहीं है,
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,
�™�-ा अपनी भुजा का जोर देखो ।'

हँसा राधेय कर कुछ याद मन में,
कहा, 'हां सत्य ही, सारे भुवन में,
वि�™क्षण बात मेरे ही �™िए है,
नियति का घात मेरे ही �™िए है ।

'म�-र, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन �-्रसे जब,
सिवा राधेय के पौरुष प्रब�™ से,
निका�™े कौन उसको बाहुब�™ से ?'

उछ�™कर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर,
�™�-ा ऊपर उठाने जोर करके,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके ।

मही डो�™ी, स�™ि�™-आ�-ार डो�™ा,
भुजा के जोर से संसार डो�™ा
न डो�™ा, किन्तु, जो चक्का फंसा था,
च�™ा वह जा रहा नीचे धंसा था ।

विपद में कर्ण को यों �-्रस्त पाकर,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर,
ज�-ा कर पार्थ को भ�-वान् बो�™े _
'खडा है देखता क्या मौन, भो�™े ?'

'शरासन तान, बस अवसर यही है,
घड़ी फ़िर �"र मि�™ने की नहीं है ।
विशिख कोई �-�™े के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे ।'

श्रवण कर विश्व�-ुरु की देशना यह,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन,
विनय में ही, म�-र, बो�™ा अकिञ्चन ।

'नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म हो�-ा ?
म�™िन इससे नहीं क्या धर्म हो�-ा ?'
हंसे केशव, 'वृथा हठ ठानता है ।
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?'

'कहूं जो, पा�™ उसको, धर्म है यह ।
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह ।
क्रिया को छोड़ चिन्तन में फंसे�-ा,
उ�™ट कर का�™ तुझको ही �-्रसे�-ा ।'

भ�™ा क्यों पार्थ का�™ाहार होता ?
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता ?
सभी दायित्व हरि पर डा�™ करके,
मि�™ी जो शिष्टि उसको पा�™ करके,

�™�-ा राधेय को शर मारने वह,
विपद् में शत्रु को संहारने वह,
शरों से बेधने तन को, बदन को,
दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को ।

विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था,
खड़ा राधेय नि:सम्ब�™, विरथ था,
खड़े निर्वाक सब जन देखते थे,
अनोखे धर्म का रण देखते थे ।

नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते,
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते ।
समय के यो�-्य धीरज को संजोकर,
कहा राधेय ने �-म्भीर होकर ।

'नरोचित धर्म से कुछ काम तो �™ो !
बहुत खे�™े, जरा विश्राम तो �™ो ।
फंसे रथचक्र को जब तक निका�™ूं,
धनुष धारण करूं, प्रहरण संभा�™ूं,'

'रुको तब तक, च�™ाना बाण फिर तुम;
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम ।
नहीं अर्जुन ! शरण मैं मा�-ंता हूं,
समर्थित धर्म से रण मा�-ंता हूं ।'

'क�™किंत नाम मत अपना करो तुम,
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम ।
विजय तन की घडी भर की दमक है,
इसी संसार तक उसकी चमक है ।'

'भुवन की जीत मिटती है भुवन में,
उसे क्या खोजना �-िर कर पतन में ?
शरण केव�™ उजा�-र धर्म हो�-ा,
सहारा अन्त में सत्कर्म हो�-ा ।'
उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को,
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को ।
म�-र, भ�-वान् किञ्चित भी न डो�™े,
कुपित हो वज्र-सी यह वात बो�™े _

'प्र�™ापी ! �" उजा�-र धर्म वा�™े !
बड़ी निष्ठा, बड़े सत्कर्म वा�™े !
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन,
कहां पर सो रहा था धर्म उस दिन ?'

'ह�™ाह�™ भीम को जिस दिन पड़ा था,
कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?
�™�-ी थी आ�- जब �™ाक्षा-भवन में,
हंसा था धर्म ही तब क्या भुवन में ?'

'सभा में द्रौपदी की खींच �™ाके,
सुयोधन की उसे दासी बता के,
सुवामा-जाति को आदर दिया जो,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो,'

'नहीं वह �"र कुछ, सत्कर्म ही था,
उजा�-र, शी�™भूषित धर्म ही था ।
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन,
हुए पाण्डव यती निष्काम जिस दिन,'

'च�™े वनवास को तब धर्म था वह,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह ।
अवधि कर पूर्ण जब, �™ेकिन, फिरे वे,
अस�™ में, धर्म से ही थे �-िरे वे ।'

'बडे पापी हुए जो ताज मां�-ा,
किया अन्याय; अपना राज मां�-ा ।
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?'

'हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहें�-े ?
सभी कुछ मौन हो सहते रहें�-े ?
कि द�-े धर्म को ब�™ अन्य जन भी ?
तजें�-े क्रूरता-छ�™ अन्य जन भी ?'

'न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?
म�-र, तेरे �™िए सब धर्म ही था,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था ।'

'किये का जब उपस्थित फ�™ हुआ है,
�-्रसित अभिशाप से सम्ब�™ हुआ है,
च�™ा है खोजने तू धर्म रण में,
मृषा कि�™्विष बताने अन्य जन में ।'

'शिथि�™ कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू ।
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू ।
कडा कर वक्ष को, शर मार इसको,
चढा शायक तुरत संहार इसको ।'

हंसा राधेय, 'हां अब देर भी क्या ?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या ?
कृपा कुछ �"र दिख�™ाते नहीं क्यों ?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों ?'

थके बहुविध स्वयं �™�™कार करके,
�-या थक पार्थ भी शर मार करके,
म�-र, यह वक्ष फटता ही नहीं है,
प्रकाशित शीश कटता ही नहीं है ।

शरों से मृत्यु झड़ कर छा रही है,
चतुर्दिक घेर कर मंड�™ा रही है,
नहीं, पर �™ी�™ती वह पास आकर,
रुकी है भीति से अथवा �™जाकर ।

जरा तो पूछिए, वह क्यों डरी है ?
शिखा दुर्द्धर्ष क्या मुझमें भरी है ?
म�™िन वह हो रहीं किसकी दमक से ?
�™जाती किस तपस्या की चमक से ?

जरा बढ़ पीठ पर निज पाणि धरिए,
सहमती मृत्यु को निर्भीक करिए,
न अपने-आप मुझको खाय�-ी वह,
सिकुड़ कर भीति से मर जाय�-ी वह ।

'कहा जो आपने, सब कुछ सही है,
म�-र, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है ?
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूं,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूं ।'

'वृथा है पूछना किसने किया क्या,
ज�-त् के धर्म को सम्ब�™ दिया क्या !
सुयोधन था खडा क�™ तक जहां पर,
न हैं क्या आज पाण्डव ही वहां पर ?'

'उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोडा ?
किये से कौन कुत्सित कर्म छोडा ?
�-िनाऊं क्या ? स्वयं सब जानते हैं,
ज�-द्�-ुरु आपको हम मानते है ।'

'शिखण्डी को बनाकर ढा�™ अर्जुन,
हुआ �-ां�-ेय का जो का�™ अर्जुन,
नहीं वह �"र कुछ, सत्कर्म ही था ।
हरे ! कह दीजिये, वह धर्म ही था ।'

'हुआ सात्यकि ब�™ी का त्राण जैसे,
�-ये भूरिश्रवा के प्राण जैसे,
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था,
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था ।'

'कथा अभिमन्यु की तो बो�™ते हैं,
नहीं पर, भेद यह क्यों खो�™ते हैं ?
कुटि�™ षडयन्त्र से रण से विरत कर,
महाभट द्रोण को छ�™ से निहत कर,'

'पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है,
चतुर्�-ुण मो�™ ब�™ि का पा चुके हैं ।
रहा क्या पुण्य अब भी तो�™ने को ?
उठा मस्तक, �-रज कर बो�™ने को ?'

'वृथा है पूछना, था दोष किसका ?
खु�™ा पह�™े �-र�™ का कोष किसका ?
जहर अब तो सभी का खु�™ रहा है,
ह�™ाह�™ से ह�™ाह�™ धु�™ रहा है ।'

जहर की कीच में ही आ �-ये जब,
क�™ुष बन कर क�™ुष पर छा �-ये जब,
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में,
अहं से फू�™ना क्या व्यर्थ मन में ?'

'सुयोधन को मि�™े जो फ�™ किये का,
कुटि�™ परिणाम द्रोहान�™ पिये का,
म�-र, पाण्डव जहां अब च�™ रहे हैं,
विकट जिस वासना में ज�™ रहे हैं,'

'अभी पातक बहुत करवाये�-ी वह,
उन्हें जानें कहां �™े जाये�-ी वह ।
न जानें, वे इसी विष से ज�™ें�-े,
कहीं या बर्फ में जाकर �-�™ें�-े ।'

'सुयोधन पूत या अपवित्र ही था,
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था ।
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो,
निभाया मित्रता का धर्म था जो ।'

'नहीं किञ्चित् म�™िन अन्तर्�-�-न है,
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है;
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है,
अ�-र है, तो यही बस, वेदना है ।'

'वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ?
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?
न कोई यो�-्य निष्कृति पा रहा हूं,
�™िये यह दाह मन में जा रहा हूं ।'

'विजय दि�™वाइये केशव! स्वजन को,
शिथि�™, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को ।
अभय हो बेधता जा अं�- अरि का,
द्विधा क्या, प्राप्त है जब सं�- हरि का !'

'मही! �™ै सोंपता हूं आप रथ मैं,
�-�-न में खोजता हूं अन्य पथ मैं ।
भ�™े ही �™ी�™ �™े इस काठ को तू,
न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू ।'

'महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आ�™ोक-स्यन्दन आ रहा है;
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-या�- से हैं तन्त्र जिसके;
जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें;
हमारा पुण्य जिसमें झू�™ता है, विभा के पद्म-सा जो फू�™ता है ।'

'रचा मैनें जिसे निज पुण्य-ब�™ से, दया से, दान से, निष्ठा अच�™ से;
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो;
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सु�-म सर्वत्र ही है राह जिसको;
�-�-न में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है ।'

'अहा! आ�™ोक-स्यन्दन आन पहुंचा,
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा ।
विभा�" सूर्य की! जय-�-ान �-ा�",
मि�™ा�", तार किरणों के मि�™ा�" ।'

'प्रभा-मण्ड�™! भरो झंकार, बो�™ो !
ज�-त् की ज्योतियो! निज द्वार खो�™ो !
तपस्या रोचिभूषित �™ा रहा हंू,
चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हंू ।'

�-�-न में बध्द कर दीपित नयन को,
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को,
�™�-ा शर एक �-्रीवा में संभ�™ के,
उड़ी ऊपर प्रभा तन से निक�™ के !

�-िरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर।
छिटक कर जो उडा आ�™ोक तन से,
हुआ एकात्म वह मि�™कर तपन से !

उठी कौन्तेय की जयकार रण में,
मचा घनघोर हाहाकार रण में ।
सुयोधन बा�™कों-सा रो रहा था !
खुशी से भीम पा�-�™ हो रहा था !

फिरे आकाश से सुरयान सारे,
नतानन देवता नभ से सिधारे ।
छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में,
उदासी छा �-यी सारे भुवन में ।

अनि�™ मंथर व्यथित-सा डो�™ता था,
न पक्षी भी पवन में बो�™ता था ।
प्रकृति निस्तब्ध थी, यह हो �-या क्या ?
हमारी �-ाँठ से कुछ खो �-या क्या ?

म�-र, कर भं�- इस निस्तब्ध �™य को,
�-हन करते हुए कुछ �"र भय को,
जयी उन्मत्त हो हुंकारता था,
उदासी के हृदय को फाड़ता था ।

युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से,
प्रफु�™्�™ित हो, बहुत दुर्�™भ विजय से,
दृ�-ों में मोद के मोती सजाये,
बडे ही व्य�-्र हरि के पास आये ।

कहा, 'केशव ! बडा था त्रास मुझको,
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको,
कि अर्जुन यह विपद भी हर सके�-ा,
किसी दिन कर्ण रण में मर सके�-ा ।'

'इसी के त्रास में अन्तर प�-ा था,
हमें वनवास में भी भय �™�-ा था ।
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ?
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था ।'

'ब�™ी योध्दा बडा विकरा�™ था वह !
हरे! कैसा भयानक का�™ था वह ?
मुष�™ विष में बुझे थे, बाण क्या थे !
शि�™ा निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !'

'मि�™ा कैसे समय निर्भीत है यह ?
हुई सौभा�-्य से ही जीत है यह ?
नहीं यदि आज ही वह का�™ सोता,
न जानें, क्या समर का हा�™ होता ?'

उदासी में भरे भ�-वान् बो�™े,
'न भू�™ें आप केव�™ जीत को �™े ।
नहीं पुरुषार्थ केव�™ जीत में है ।
विभा का सार शी�™ पुनीत में है ।'

'विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ?
विभा उसकी अजय हंसती कहां है ?
भरी वह जीत के हुङकार में है,
छिपी अथवा �™हू की धार में है ?'

'हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ?
मि�™ा किसको विजय का ताज रण में ?
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ?
चुकाया मो�™ क्या? सौदा �™िया क्या ?'

'समस्या शी�™ की, सचमुच �-हन है ।
समझ पाता नहीं कुछ क्�™ान्त मन है ।
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है ।
जिसे तजता, उसी को मानता है ।'

'म�-र, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह ।
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह ।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था ।'

'हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
द�™ित-तारक, समुध्दारक त्रिया का ।
बडा बेजोड दानी था, सदय था,
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था ।'

'किया किसका नहीं क�™्याण उसने ?
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?
ज�-त् के हेतु ही सर्वस्व खोकर,
मरा वह आज रण में नि:स्व होकर ।'

'उ�-ी थी ज्योति ज�- को तारने को ।
न जन्मा था पुरुष वह हारने को ।
म�-र, सब कुछ �™ुटा कर दान के हित,
सुयश के हेतु, नर-क�™्याण के हित ।'

'दया कर शत्रु को भी त्राण देकर,
खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर,
�-या है कर्ण भू को दीन करके,
मनुज-कु�™ को बहुत ब�™हीन करके ।'

'युधिष्ठिर! भू�™िये, विकरा�™ था वह,
विपक्षी था, हमारा का�™ था वह ।
अहा! वह शी�™ में कितना विनत था ?
दया में, धर्म में कैसा निरत था !'

'समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,
पितामह की तरह सम्मान करिये ।
मनुजता का नया नेता उठा है ।
ज�-त् से ज्योति का जेता उठा है !'

© 2023 ianalex27


Author's Note

ianalex27
Its in a language from India. In hindi language.

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Added on August 30, 2023
Last Updated on August 30, 2023
Tags: Rashmirathi, karn, sarg, mahabharat

Author

ianalex27
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India, Madhya Pradesh , India



About
My name is gaurav Sharma from Indore, India. Currently I just want to post a poem "Rashmirathi" by Ramdhari Singh dinkar more..